अमेरिका: लोकतंत्र का चैम्पियन या तख़्तापलट का गॉडफ़ादर?

अमेरिका: लोकतंत्र का चैम्पियन या तख़्तापलट का गॉडफ़ादर?

पिछले कई दशकों में अमेरिका ने बार-बार यह साबित किया है कि, उसकी विदेश नीति छल, असफलता और झूठ के एक दोहराए जाने वाले चक्र पर आधारित है। इराक़  और अफ़ग़ानिस्तान से लेकर लैटिन अमेरिका और पश्चिम एशिया तक, एक ही पैटर्न दिखाई देता है: ख़ूबसूरत नारों के साथ दख़ल, ज़मीनी स्तर पर नाकामी और अंत में सच को छिपाने के लिए खुला झूठ।

अमेरिकी पत्रिका फॉरेन अफ़ेयर्स ने अपने एक विश्लेषण में इस झूठ के चक्र का विस्तार से अध्ययन किया है, ख़ास तौर पर पश्चिम एशिया में। पत्रिका का कहना है कि अमेरिका ने “लोकतंत्र की रक्षा” और “आतंकवाद से लड़ाई” जैसे बहानों से इस क्षेत्र को निशाना बनाया, लेकिन असलियत में उसने यहाँ अराजकता फैलाई। नाकामियों के बावजूद वॉशिंगटन इस झूठे चक्र को जारी रखने पर अड़ा हुआ है। ये झूठ न केवल लक्षित देशों को अस्थिर कर रहे हैं बल्कि अमेरिका पर वैश्विक भरोसा ख़त्म होने का भी कारण बन रहे है।

लोकतंत्र का सबसे बड़ा झूठ
अमेरिका का सबसे बड़ा झूठ “लोकतंत्र की रक्षा” का दावा है। वॉशिंगटन हमेशा खुद को आज़ादी का संरक्षक बताता रहा है, लेकिन उसका असली रिकॉर्ड इसके उलट है। 1953 में अमेरिका ने ब्रिटेन के साथ मिलकर ईरान में डॉ. मोहम्मद मोसद्दिक की लोकतांत्रिक सरकार को तख़्तापलट के ज़रिए गिरा दिया। 1973 में चिली के राष्ट्रपति साल्वाडोर अयेंदे के ख़िलाफ़ तख़्तापलट भी सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (CIA) की सीधी मदद से हुआ। ये उदाहरण दिखाते हैं कि, अमेरिका जब भी अपने हितों को ख़तरे में देखता है, लोकतंत्र की बलि दे देता है।

इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान: झूठी उम्मीदें
2003 में इराक़ पर हमले के बाद अमेरिकी अधिकारियों ने बार-बार कहा कि, इराक़ “मध्य पूर्व का लोकतांत्रिक मॉडल” बनने जा रहा है। लेकिन नतीजा रहा गृहयुद्ध, आतंकी संगठनों का उभार और ढहती बुनियादी ढाँचे। अफ़ग़ानिस्तान में भी यही कहानी दोहराई गई। दो दशक तक अमेरिका ने “देश के पुनर्निर्माण” और “महिलाओं के अधिकार” का नारा दिया, लेकिन अपमानजनक वापसी के बाद तालिबान फिर से हुकूमत में आ गया और सारी वादा ख़िलाफ़ियाँ खुलकर सामने आ गईं। दोनों ही जगहों पर जनता को अमेरिकी झूठ का खामियाज़ा भुगतना पड़ा।

आतंकवाद से लड़ाई है या प्रभाव बढ़ाने का बहाना?
11 सितम्बर की घटनाओं के बाद अमेरिका ने दावा किया कि, उसका मिशन “आतंकवाद से लड़ाई” है। लेकिन जल्द ही यह साफ हो गया कि यह लड़ाई वैश्विक सुरक्षा बढ़ाने से ज्यादा, मध्य पूर्व में सैन्य उपस्थिति और राजनीतिक प्रभुत्व का साधन बन गई। कई रिपोर्टों में सामने आया है कि कुछ आतंकी गुट, जिनमें आईएसआईएस भी शामिल है, न सिर्फ अमेरिका की जंगों की आड़ में बढ़े, बल्कि कई बार वॉशिंगटन से अप्रत्यक्ष मदद लेकर अपने दुश्मनों को निशाना भी बनाते रहे। यह खुला विरोधाभास दिखाता है कि “आतंक के खिलाफ जंग” का नारा एक प्रचारक आवरण ज्यादा था, असली नीति नहीं।

ऑपरेशन ‘सिन्दूर’ के बाद अमेरिका ने आसिम मुनीर को दावत क्यों दी?
अमेरिका हमेशा खुद को आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक नेतृत्वकर्ता बताता है। वॉशिंगटन से लेकर संयुक्त राष्ट्र मंच तक उसके नेताओं के भाषण यही दोहराते हैं कि आतंकवाद मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन है और इसके खिलाफ जीरो-टॉलरेंस की नीति अपनानी चाहिए। लेकिन हाल ही में पाकिस्तान सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर को व्हाइट हाउस में आधिकारिक दावत पर बुलाए जाने से यह दावा खोखला लगता है। यह वही पाकिस्तान है जिसकी धरती दशकों से आतंकी कैंपों और संगठनों का सुरक्षित अड्डा रही है। भारत, अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया में सैकड़ों निर्दोष लोगों का खून इसी नेटवर्क से जुड़ा हुआ है।

भारत ने ऑपरेशन ‘सिन्दूर’ के ज़रिए एक बार फिर यह दिखाया कि, आतंकवाद के खिलाफ केवल नारेबाज़ी नहीं, बल्कि ठोस कदम उठाने पड़ते हैं। इस ऑपरेशन ने न सिर्फ भारत की सैन्य क्षमता बल्कि उसकी स्पष्ट नीति को भी उजागर किया कि चाहे सीमा पार से कितने भी दबाव हों, राष्ट्रीय सुरक्षा पर कोई समझौता नहीं होगा। भारत की यही स्पष्टता उसे दुनिया में एक विश्वसनीय ताक़त बनाती है। इसके उलट, अमेरिका का दोहरा रवैया गंभीर सवाल खड़े करता है। एक तरफ़ वॉशिंगटन भारत से आतंकवाद पर सहयोग की बातें करता है, दूसरी तरफ़ उसी पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व को गले लगाता है जो आतंक के ढांचे को पोषित करता है। इस तरह की मेहमाननवाज़ी न सिर्फ आतंकियों का हौसला बढ़ाती है बल्कि उन देशों के बलिदान को भी कमतर करती है जिन्होंने आतंकवाद से सीधे संघर्ष किया है।

भारत के लिए असली सहारा उसकी जनता की एकजुटता और सुरक्षा बलों का साहस है। दुनिया यह जान चुकी है कि भारत अपने बलबूते आतंकवाद से लड़ सकता है और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आतंकवादियों की असलियत उजागर कर सकता है। ऑपरेशन ‘सिन्दूर’ के बाद आसिम मुनीर को अमेरिकी दावत पर बुलाना आतंकवाद विरोधी दावों पर प्रश्नचिह्न है।

मानवाधिकार उल्लंघन करने वालों से गठजोड़
अमेरिका का एक और बड़ा झूठ है “मानवाधिकारों की रक्षा” का दावा। जबकि वॉशिंगटन खुद को स्वतंत्रता का संरक्षक बताता है, उसके सहयोगी हमेशा वही रहे हैं जिनका इतिहास मानवाधिकार हनन और राजनीतिक दमन से भरा पड़ा है। इज़रायल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है—एक ऐसा शासन जिसने लगभग दो वर्षों में करीब 70 हज़ार बेगुनाहों को ग़ाज़ा में शहीद किया, कम से कम पाँच देशों की ज़मीन पर हमला किया और अब भी अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मानवाधिकार नियमों की पूरी तरह अनदेखी करते हुए अपने हमलों पर अड़ा हुआ है।

इज़रायल ने इसी साल जून महीने में ईरान की ज़मीन पर हमलों के दौरान कम से कम 1000 ईरानियों, जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे, को शहीद कर दिया। लेकिन अमेरिका ने न केवल इस हमले की निंदा नहीं की, बल्कि राजनीतिक और सैन्य समर्थन देने के अलावा, ईरान के शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम को निशाना बनाने में इज़रायल की मदद भी की और खुलेआम आक्रामकता दिखाते हुए बंकर-भेदी बमों से ईरान की परमाणु स्थापनाओं को निशाना बनाया।

वॉशिंगटन जहां एक ओर मानवाधिकारों की रक्षा का दावा करता है, वहीं वह ज़ायोनी शासन का “सबसे अच्छा दोस्त और सहयोगी” भी माना जाता है। इज़रायल को अमेरिका का यह समर्थन ऐसे समय में जारी है जब कई अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन, जिनमें दो इज़रायली संगठन भी शामिल हैं, मान चुके हैं कि, ग़ाज़ा में जो कुछ हो रहा है वह “नरसंहार” है।

विशेषज्ञों का मानना है कि, इसी नीति ने कई राष्ट्रों को अमेरिका के मानवाधिकार संबंधी दावों पर भरोसा करना बंद कर दिया है और अब इन्हें एक वास्तविक मूल्य नहीं, बल्कि वॉशिंगटन के राजनीतिक हितों का औज़ार समझा जाता है। अमेरिकी पत्रिका फॉरेन अफेयर्स ने ज़ोर देकर कहा है कि, अमेरिका के युद्धों और नीतियों की समीक्षा से साफ़ होता है कि, झूठ केवल सहायक हथियार नहीं रहे, बल्कि वे इस देश की विदेश नीति का असली आधार बने हैं।

“लोकतंत्र फैलाने” से लेकर “आतंकवाद से लड़ने” और “मानवाधिकारों की रक्षा” तक—हर बार बड़े-बड़े वादे किए गए, लेकिन अमल में सिर्फ़ युद्ध, तबाही और अविश्वास ही पीछे छूटा। पश्चिमी विश्लेषकों की स्वीकारोक्ति के अनुसार, आज अमेरिका की विरासत कुछ और नहीं बल्कि असफलताएँ, अंतरराष्ट्रीय साख को गहरी चोट और सहयोगियों व दुश्मनों दोनों के बीच अविश्वास की लहर है।

मादक पदार्थों की तस्करी से लड़ाई: अमेरिका का नया झूठ
अब वॉशिंगटन अपने ताज़ा झूठ के साथ सामने आया है। “वेनज़ुएला में नशे की तस्करी करने वाले गिरोहों से लड़ाई” का दावा करके वह असल में उस देश की सरकार को निशाना बना रहा है। अमेरिका वेनेज़ुएला के चारों ओर अपनी फ़ौजों की तैनाती को “नशा-रोधी अभियान” बताता है, जबकि अमेरिकी मीडिया, जिनमें सीएनएन भी शामिल है, ने खुलासा किया है कि असली मक़सद वेनेज़ुएला के अमेरिका-विरोधी राष्ट्रपति निकोलस मादुरो को सत्ता छोड़ने पर मजबूर करना है। दरअसल, नशे की तस्करी से लड़ाई का दावा केवल एक परदा है—मुख्य लक्ष्य वेनेज़ुएला की सरकार को गिराना है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।

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