ईरान के ख़िलाफ़ ट्रंप की नीति: बातचीत या धमकी?
पश्चिम एशिया एक बार फिर अमेरिकी दोहरे मापदंडों का शिकार बन रहा है। एक ओर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बातचीत की बात करते हैं, दूसरी ओर ईरान और ग़ज़ा पर हमलों को जायज़ ठहराते हैं। हाल ही में ट्रंप ने यह दावा किया कि ईरान पर हुए आक्रामक हमलों के चलते तेहरान अब झुकने को तैयार है और अमेरिका से बातचीत चाहता है। लेकिन यह दावा सिर्फ राजनीतिक प्रचार का हिस्सा है। सच्चाई यह है कि ट्रंप की पूरी रणनीति “दबाव बनाकर समझौता” कराने की है, न कि कूटनीतिक समाधान खोजने की।
डोनाल्ड ट्रंप ने बुधवार तड़के दिए अपने एक बयान में दावा किया कि, ईरान अब अमेरिका से बातचीत चाहता है, क्योंकि अमेरिका ने उसके परमाणु ठिकानों को निशाना बनाकर उन्हें “बेकार” बना दिया है। इस बयान में दो बातें छुपी हैं:
पहली,अमेरिका खुलेआम यह स्वीकार कर रहा है कि उसने ईरान की संप्रभुता का उल्लंघन किया है;
दूसरी, वह इस हमले को अपनी “सफलता” के रूप में प्रचारित कर रहा है।
लेकिन ट्रंप का यह दावा उस समय खोखला लगता है जब वह खुद ही यह भी कहते हैं कि उन्हें बातचीत की कोई जल्दी नहीं है। एक ओर वह यह दर्शाना चाहते हैं कि ईरान झुक रहा है, और दूसरी ओर यह भी कहते हैं कि “अभी नहीं, बाद में बात करेंगे।” यह रवैया अमेरिका की उस नीति को उजागर करता है जिसमें “बातचीत” सिर्फ एक दिखावा होती है, असल में मक़सद राजनीतिक दबाव बनाना होता है।
ग़ाज़ा पर हमला और युद्ध-विराम की नौटंकी
ईरान ही नहीं, ग़ाज़ा पर भी ट्रंप और उनके जैसे नेताओं की नीति दोहरे मापदंडों पर आधारित है। ट्रंप कह रहे हैं कि वह ग़ाज़ा में युद्ध-विराम चाहते हैं, लेकिन वहीं दूसरी ओर इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू को समर्थन दे रहे हैं, जिनकी सेना ग़ाज़ा में स्कूलों, अस्पतालों और रिहायशी इलाक़ों पर बमबारी कर रही है। क्या युद्ध-विराम की बातें उन बच्चों के लिए हैं, जिन्हें गोली मार दी गई क्योंकि वे पानी और रोटी की लाइन में खड़े थे?
ग़ाज़ा की हालत इस समय भयावह है। सारे अस्पताल नष्ट किए जा चुके हैं। घायल लोगों को न दवा मिल रही है, न पानी, न भोजन। अमेरिकी राष्ट्रपति और उनके यूरोपीय साथी इस नरसंहार पर चुप हैं और इसे “आत्मरक्षा” की संज्ञा देकर इज़रायल को और अधिक हथियार मुहैया कर रहे हैं।
ग़ाज़ा में नरसंहार: क्या यह सिर्फ नेतन्याहू की मर्ज़ी है?
एक सवाल जो पूरी दुनिया को परेशान कर रहा है, वह यह है कि क्या ग़ाज़ा में यह सब कुछ नेतन्याहू अपनी मर्ज़ी से कर रहे हैं या अमेरिका और यूरोप की सहमति से? अगर अमेरिका और यूरोप इसके ख़िलाफ़ हैं, तो फिर इज़रायल को हथियार क्यों दिए जा रहे हैं? क्या युद्ध-विराम की बातें केवल दिखावा और छलावा हैं?
ज़मीनी हक़ीक़त यह है ग़ाज़ा में मासूम बच्चों, महिलाओं, और बुज़ुर्गों का खुल्लमखुल्ला जनसंहार उसी तरह जारी है। ट्रंप के कार्यकाल में इज़रायल को मिले हथियारों की मात्रा और अमेरिका की चुप्पी यह बताने के लिए काफी है कि यह नरसंहार सिर्फ इज़रायल का नहीं, बल्कि अमेरिका की रणनीतिक सहमति से हो रहा है। ग़ाज़ा में बच्चों की लाशें और बमों से जली हुई लाशें दुनिया के सामने हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संस्थाएं सिर्फ बयान जारी करने तक सीमित हैं।
अमेरिका की “शांति नीति”: यूक्रेन के लिए चिंतित, ग़ज़ा के लिए नहीं
ट्रंप ने हाल ही में रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर कहा कि, उन्हें यह युद्ध जल्द समाप्त करवाना है और पुतिन को दी गई 50 दिन की डेडलाइन ख़त्म होने से पहले युद्ध थम सकता है। लेकिन वही ट्रंप जब ग़ाज़ा की बात करते हैं तो मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। क्या ग़ानज़ा के मासूम बच्चों की जान उतनी कीमती नहीं है जितनी यूक्रेन के नागरिकों की?
यह पश्चिमी दुनिया का वह पाखंड है जो बार-बार सामने आता है: जहां अमेरिका के हित होते हैं, वहां मानवाधिकार याद आते हैं, और जहां सिर्फ दुसरे देशों के नागरिक मर रहे होते हैं, वहां चुप्पी ही कूटनीति मानी जाती है।
इज़रायल के लिए छूट, ईरान के लिए प्रतिबंध
अमेरिका के लिए इज़रायल एक ऐसा सहयोगी है जिसे हर हाल में समर्थन देना ज़रूरी है — चाहे वह मानवाधिकार का उल्लंघन करे, संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों की धज्जियाँ उड़ाए, या नागरिकों पर बम गिराए। दूसरी ओर, ईरान के साथ मामला बिल्कुल उलटा है। ईरान अगर अपनी सुरक्षा के लिए कोई कदम उठाता है तो उस पर प्रतिबंध, हमला और धमकी शुरू हो जाती है।
ईरान पर परमाणु हथियारों के निर्माण का आरोप लगाकर ट्रंप प्रशासन ने 2018 में परमाणु समझौते से खुद को अलग कर लिया और फिर ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए। सवाल यह है कि जब अमेरिका और इज़रायल के पास खुलेआम परमाणु हथियार हैं तो ईरान को परमाणु ऊर्जा विकसित करने से क्यों रोका जा रहा है? ईरान ने अंतर्राष्ट्रीय मंच इस बात को कई बार दोहराया है कि, हमारा परमाणु हथियार बनाने का न तो पहले कभी इरादा था और न भविष्य में कभी होगा। हमारा यूरेनियम कार्यक्रम बिलकुल शांतिपूर्ण है।
दबाव की राजनीति या साम्राज्यवाद?
ट्रंप जिस तरह से टैरिफ, प्रतिबंध, और सैन्य हमलों की भाषा में दुनिया से “बातचीत” करना चाहते हैं, वह किसी लोकतांत्रिक देश की नहीं, बल्कि एक साम्राज्यवादी मानसिकता की निशानी है। बातचीत तब होती है जब दोनों पक्ष बराबरी पर हों, लेकिन ट्रंप की भाषा में साफ़ है कि वह किसी को बराबरी का दर्जा देने को तैयार नहीं। यह रणनीति न केवल ईरान के लिए अपमानजनक है बल्कि वैश्विक कूटनीति के लिए भी खतरनाक है। यह दबाव की राजनीति शांति की गारंटी नहीं देती, बल्कि टकराव और विद्रोह को जन्म देती है।
ग़ाज़ा की हालत: मानवता की आख़िरी सांस
इस समय ग़ाज़ा में हालात किसी नर्क से कम नहीं। अस्पताल, स्कूल, मस्जिदें, बिजली और पानी की लाइनें — सब कुछ तबाह कर दिया गया है। इज़रायल ने पूरी योजना के तहत ग़ाज़ा को एक खुली जेल में तब्दील कर दिया है जहां लाखों नागरिक भूख, प्यास और गोलियों के बीच जीने को मजबूर हैं। बच्चों के शव जब बर्फ़ में लपेटे जा रहे हों, मांओं की चीखें जब आसमान तक पहुंच रही हों, तब दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र अमेरिका और उसके सहयोगी सिर्फ “आत्मरक्षा” की रट लगाए बैठे हैं। अगर यह आत्मरक्षा है, तो फिर आक्रमण किसे कहते हैं?
क्या दुनिया जागेगी?
अब यह प्रश्न सिर्फ ट्रंप से नहीं, पूरी दुनिया से है: क्या आप चुपचाप ग़ाज़ा में नरसंहार देखते रहेंगे? क्या ईरान के खिलाफ हर कदम को जायज़ मानते रहेंगे? या फिर वह समय आ गया है जब पूरी दुनिया को दो टूक कहना होगा कि मानवाधिकार सभी के लिए हैं — चाहे वे यूरोप में हों, यूक्रेन में हों, या फिर ग़ाज़ा और तेहरान में। डोनाल्ड ट्रंप और उनकी टीम की नीति इस बात की तस्दीक करती है कि अमेरिकी कूटनीति अब नैतिकता पर नहीं, बलशाली दबाव पर आधारित हो गई है। बातचीत का दावा सिर्फ दिखावा है, असल मंशा नियंत्रण और वर्चस्व है।
ईरान और ग़ज़ा की जनता ने बार-बार यह साबित किया है कि वे झुकेंगे नहीं, दबेंगे नहीं। अब दुनिया की बारी है कि वह इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाए। अमेरिका और उसके सहयोगियों को यह समझना होगा कि हथियारों से न सम्मान मिलता है, न स्थायी समाधान। सम्मान तभी मिलेगा जब आप दूसरों की संप्रभुता, मानवाधिकार और अस्तित्व का सम्मान करना सीखेंगे। वरना इतिहास यह सब लिखेगा — कि जब ग़ाज़ा में बच्चे मारे जा रहे थे, तब दुनिया चुप थी; जब ईरान पर हमले हो रहे थे, तब अमेरिका गर्व कर रहा था; और जब इंसानियत मर रही थी, तब नोबेल के दावेदार मुस्कुरा रहे थे।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।


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