महिलाओं, बच्चों का नरसंहार, स्कूलों और अस्पतालों पर बमबारी, इज़रायल की पराजय का प्रमाण है: आयतुल्लाह ख़ामेनेई

महिलाओं, बच्चों का नरसंहार, स्कूलों और अस्पतालों पर बमबारी, इज़रायल की पराजय का प्रमाण है: आयतुल्लाह ख़ामेनेई

कल सुबह इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता, आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने हज़ारों पूर्व सैनिकों और प्रतिरोध के कार्यकर्ताओं से मुलाकात की। इस अवसर पर उन्होंने ईरान पर थोपे गए युद्ध के कारणों को समझाते हुए दुनिया पर हावी भ्रष्ट और अन्यायपूर्ण व्यवस्था के सामने इस्लामी गणराज्य के “नए विचार” और “आकर्षण” का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि इस्लामी क्रांति सिर्फ मातृभूमि की रक्षा नहीं थी, बल्कि यह धर्म की रक्षा और अल्लाह की राह में संघर्ष था, जिसने इस्लाम को पुनर्जीवित किया और ईरानी राष्ट्र को सम्मान दिलाया, साथ ही देश में आध्यात्मिकता का विस्तार किया।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने क्षेत्रीय हालात और ग़ाज़ा और लेबनान में इज़रायली प्रशासन के अत्याचारों का जिक्र करते हुए कहा कि फिलिस्तीन के प्रतिरोध बल और लेबनान में हिज़बुल्लाह की संघर्षशीलता, उसी प्रकार अल्लाह की राह में जिहाद है, जैसा कि ईरान की रक्षा के समय था। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि ग़ाज़ा, और लेबनान में इज़रायली अत्याचारों के बावजूद, अब तक फ़िलिस्तीनी ही विजयी रहे हैं, और अल्लाह की मदद से, अंतिम जीत प्रतिरोध मोर्चे और हिज़बुल्लाह की ही होगी।

ईरान हमले में उस वक्त की विश्व शक्तियों की अहम भूमिका थी
इस मुलाकात में आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने सबसे पहले आठ साल तक चले ईरान- इराक़ युद्ध के कारणों को विस्तार से समझाया। उन्होंने विशेष रूप से युवाओं को संबोधित करते हुए बताया कि 1359 (1979) में ईरान पर हमला सिर्फ सद्दाम हुसैन या बाथ पार्टी की मंशा नहीं थी, बल्कि उस वक्त की विश्व शक्तियों, जैसे अमेरिका और सोवियत संघ, और उनके सहयोगियों का भी इसमें अहम भूमिका थी। उन्होंने बताया कि इन महाशक्तियों के ईरान से विरोध का कारण इस्लामी क्रांति का वह नया विचार था, जो उनके लिए असहनीय था।

अन्याय के खिलाफ खड़ा होना इस्लामी क्रांति का स्पष्ट संदेश
इस्लामी क्रांति का स्पष्ट संदेश था कि दुनिया में प्रचलित अन्यायपूर्ण व्यवस्था और शक्तिशाली देशों द्वारा कमजोर देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की संस्कृति के खिलाफ खड़ा हुआ जाए। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने बताया कि महाशक्तियों को इस्लामी क्रांति के विचार से ख़तरा महसूस हुआ, क्योंकि यह विचार दुनिया की अन्य जनता के लिए भी आकर्षक और प्रेरणादायक था। उन्होंने कहा कि सद्दाम, जो एक महत्वाकांक्षी और क्रूर शासक था, ने विश्व शक्तियों को यह अवसर दिया और उनके उकसावे पर ईरान पर हमला कर दिया।

उन्होंने उन आलोचनाओं का भी खंडन किया, जो कहते हैं कि इस्लामी गणराज्य ने दुनिया से अपने संबंधों को खत्म कर लिया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि ईरान आज भी उन देशों के साथ संबंधों में है, जहां दुनिया की आधी आबादी रहती है। अगर कुछ लोग यह कह रहे हैं कि ईरान पश्चिमी शक्तियों और अमेरिका के नेतृत्व वाले विश्व प्रभुत्व का विरोध कर रहा है, तो यह बात सही है, और ईरान हमेशा इस अन्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था के खिलाफ खड़ा रहेगा।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने कहा कि आज ईरानी राष्ट्र की दृढ़ता और साहस के कारण कोई भी शक्ति ईरान की सीमाओं पर हमला करने का साहस नहीं कर सकती। हालांकि, उन्होंने आगाह किया कि दुश्मन अभी भी ईरान के खिलाफ चालाकी और विरोध की रणनीति अपना रहे हैं, और हमें इस सच्चाई को गहराई से समझना चाहिए। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने कहा, ईरान का युद्ध युद्ध केवल देश की रक्षा के लिए नहीं था। बेशक, देश की रक्षा एक महत्वपूर्ण मूल्य है, लेकिन युद्ध का मुद्दा इस मूल्य से भी ऊपर था। यह इस्लाम की रक्षा और कुरान के आदेशों का पालन था, जिसे इस्लामी साहित्य में “जिहाद-फी-सबीलिल्लाह” कहा जाता है। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने जोर देकर कहा कि, पवित्र स्थलों की रक्षा (दिफा-ए-मुकद्दस) ने क्रांति और इस्लाम को जीवित रखा और ईरानी जनता को सम्मानित किया, जिससे देश में आध्यात्मिकता का प्रसार हुआ।

उन्होंने आगे कहा कि इसके परिणामस्वरूप, युद्ध के मोर्चे इबादतगाह बन गए, जिसमे बिना किसी स्वार्थ के सेवा, मध्यरात्रि की प्रार्थना, और आंसुओं भरी आंखों वाले लोग उपस्थित थे। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने कहा कि इस प्रकार की भावना के साथ, ईरानी जनता ने आठ साल की कठिनाइयों का सामना करने के बावजूद, अल्लाह की कृपा से सम्मान, विजय और सफलता प्राप्त की।

उन्होंने फिलिस्तीन और लेबनान की वर्तमान घटनाओं को पवित्र स्थानों की रक्षा की घटनाओं के समान बताया और कहा कि यह भी “जिहाद-फी-सबीलिल्लाह” का एक उदाहरण है। उन्होंने कहा कि फिलिस्तीन जैसे एक इस्लामी देश को दुनिया के सबसे दुष्ट और क्रूर शासकों द्वारा हड़प लिया गया है और इसका स्पष्ट धार्मिक आदेश यह है कि हर कोई फिलिस्तीन और मस्जिद-अल-अक्सा को उसके असली मालिकों के पास वापस लाने के लिए प्रयास करे। उन्होंने आगे कहा कि लेबनान का हिज़बुल्लाह, जो ग़ाज़ा के लिए अपने सीने को ढाल बना रहा है और दर्दनाक घटनाओं का सामना कर रहा है, “जिहाद-फी-सबीलिल्लाह” में संलग्न है।

उन्होंने इस संघर्ष की समानता का उल्लेख करते हुए कहा कि इस संघर्ष में दुष्ट और क्रूर दुश्मन के पास सबसे अधिक हथियार और साधन हैं और अमेरिका उसके पीछे खड़ा है। अमेरिकी दावा कि उन्हें इज़रायली अत्याचारों की जानकारी नहीं है, सरासर गलत है। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने कहा कि इज़रायल के पास धन, हथियार और वैश्विक प्रचार का समर्थन है, लेकिन मोमिन और मुजाहिद का पक्ष बहुत कम संसाधनों के साथ है। फिर भी विजय “जिहाद-फी-सबीलिल्लाह”, यानी फिलिस्तीनी प्रतिरोध और लेबनान के हिजबुल्लाह के साथ है।

हिज़बुल्लाह के जाबांजों की शहादतें हिज़बुल्लाह को कमजोर नहीं कर सकतीं
उन्होंने इज़रायली शासन द्वारा मासूमों, महिलाओं और बच्चों का बड़े पैमाने पर नरसंहार और स्कूलों और अस्पतालों की बमबारी को उसकी पराजय का प्रमाण बताया। उन्होंने कहा कि अगर इज़रायल ग़ाज़ा, वेस्ट बैंक और लेबनान में लड़ाकों को हरा पाता, तो उन्हें इस तरह के अपराधों की आवश्यकता नहीं पड़ती। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने हिज़बुल्लाह के जाबांजों की शहादतें और उसके महत्वपूर्ण सदस्यों की शहादतों को हिज़बुल्लाह के लिए एक हानि माना, लेकिन यह भी कहा कि ये हानि हिज़बुल्लाह को कमजोर नहीं कर सकतीं, क्योंकि हिज़बुल्लाह की संगठनात्मक और सैन्य ताकत बहुत अधिक है। उन्होंने जोर देकर कहा कि प्रतिरोध का मोर्चा अब तक विजयी रहा है और अल्लाह की कृपा से अंतिम विजय भी इसी मोर्चे की होगी।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने अपने भाषण के अंतिम भाग में आंतरिक मुद्दों पर एक महत्वपूर्ण चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि हमारे मुजाहिदों ने देश की सीमाओं पर दुश्मन का झंडा लहराने से रोकने के लिए अपने प्राणों की आहुति दी और अपने परिवारों को शोक में डाला। उन्होंने कहा कि इन बलिदानों के बावजूद, ईरानी राष्ट्र यह कभी स्वीकार नहीं करेगा कि देश के भीतर दुश्मन की सांस्कृतिक घुसपैठ और उसके जीवनशैली के झंडे लहराए जाएं।

उन्होंने विभिन्न विभागों के अधिकारियों, विशेष रूप से शिक्षा मंत्रालय, विज्ञान मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, मीडिया और प्रसारण संस्थानों को सावधान रहने की सख्त सलाह दी और कहा कि हमें पूरी सतर्कता के साथ दुश्मन को अपनी चालबाजियों और साजिशों को फैलाने से रोकना चाहिए। इस बैठक की शुरुआत में, शहीदों के परिवारों के छह सदस्यों और पवित्र स्थांनों की संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत लोगों ने अपने कार्य, क्षेत्रों में बलिदान और शहादत की संस्कृति के प्रभावों पर अपने विचार साझा किए। साथ ही, पवित्र स्थलों की रक्षा के मूल्यों के संरक्षण और प्रचार के लिए कार्यरत संगठन के प्रमुख, जनरल बहमन कारगर ने इस संगठन की गतिविधियों की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की।

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