लेबनान और ग़ाज़ा के प्रतिरोध को एक-दूसरे से अलग नहीं की जा सकता: हिज़्बुल्लाह
लेबनान की संसद में हिज़्बुल्लाह से जुड़े सांसद हसन इज़्ज़ुद्दीन ने कहा कि आज के प्रतिरोध समूह — चाहे लेबनान में हो या फ़िलिस्तीन में — अब राष्ट्रीय पहचान, वैचारिक संस्कृति और ईमान का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं।
इज़्ज़ुद्दीन ने कहा, “अगर हम इस प्रतिरोध का सही मूल्यांकन करना चाहें, तो हमें इसके शुरुआती दौर से शुरू करना होगा — जब इसने पहली बार अपने अस्तित्व को साबित किया और हर मुश्किल और ख़तरे के सामने डटकर खड़ा रहा। सब जानते हैं कि यह प्रतिरोध 1982 में इज़रायल के उस हमले के जवाब में शुरू हुई था, जब दुश्मन ने सिर्फ़ तीन दिनों में लेबनान पर हमला कर लितानी नदी तक पहुंच बना ली थी।”
उन्होंने अल-मनार चैनल से बातचीत में कहा, “उस दौर में कोई वास्तविक और प्रभावी सैन्य जवाब नहीं था। इज़रायली सेना उत्तर की ओर बढ़ती गई, किसी को भी सामने नहीं पाया और आखिरकार बेरूत तक पहुंच गई — जो यरुशलम के बाद दूसरा अरब राजधानी शहर था, जिसे उसने घेर लिया। तीन महीनों तक बेरूत की घेराबंदी रही। इसी दौरान कुछ ईमानदार और समर्पित युवाओं का एक समूह बना, जब ईरान के पहले सुप्रीम लीडर स्वर्गीय आयतुल्लाह ख़ुमैनी ने फ़रमान दिया कि, जो भी हथियार उठा सकता है, उसे इस दुश्मन के खिलाफ़ खड़ा होना चाहिए, चाहे उसके पास कितनी भी सीमित ताक़त क्यों न हो।”
उन्होंने आगे कहा, “वास्तव में, उस समय उनके पास कुछ भी नहीं था। जिन हथियारों से भाइयों ने 1982 में लड़ाई की, वे फ़िलिस्तीनी संगठनों और लेबनानी राष्ट्रीय पार्टियों से उधार लिए गए थे, अलग-अलग जगहों से जुटाए गए और युद्ध के बाद वापस कर दिए गए। उसी दौर से यह प्रतिरोध हर कठिनाई, चुनौती और धमकी का सामना करती आई है — जबकि उस समय बहुत से लोग यह मान चुके थे कि, अब ‘इज़रायल और ज़ायोनिज़्म का युग’ शुरू हो चुका है।”
लेबनानी सांसद ने कहा, “वह प्रतिरोध, जिसके बारे में कभी कहा जाता था कि ‘आंख झंडे के सामने टिक नहीं सकती,’ आज भी अपने हक़ पर कायम है। उसकी वैधता पर संदेह पैदा करने की कोशिशों के बावजूद, उसने डटे रहकर अपने वजूद को साबित किया है। यह संघर्ष सबसे पवित्र संघर्ष है — क्योंकि यह उस दुश्मन के ख़िलाफ़ है जिसने फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर कब्ज़ा किया, इस्लामी पवित्र स्थलों पर हमला किया, जो हर मुसलमान के लिए पवित्र हैं — और यहां तक कि ईसाई पवित्र स्थलों को भी निशाना बनाया, जो पूरी दुनिया के ईसाइयों से जुड़ी हैं।”
इज़्ज़ुद्दीन ने ज़ोर देकर कहा कि आज का प्रतिरोध — चाहे लेबनान में हो या फ़िलिस्तीन में — राष्ट्रीय पहचान, बौद्धिक संस्कृति और आस्था का हिस्सा बन चुकी है। यह प्रतिरोध उस देश की अस्तित्व की रक्षा के लिए है, जो आज भी अपने नागरिकों को इज़रायली हमलों से पूरी तरह बचा नहीं सकता — जो उसकी ज़मीन, आसमान और समुद्र का लगातार उल्लंघन करता है। इसलिए किसी को यह अधिकार नहीं कि हमें अपने बचाव और प्रतिरोध के वैध अधिकार से रोके, क्योंकि यह एक प्राकृतिक और ईश्वरीय अधिकार है, जिसे सभी अंतरराष्ट्रीय और दैवीय क़ानूनों ने मान्यता दी है।
उन्होंने अंत में कहा, “अब यह प्रतिरोध किसी एक पार्टी, गुट या संगठन की संपत्ति नहीं रही। यह पूरी उम्मत की है — उस हर व्यक्ति की जो इस राह पर ईमान रखता है और चाहता है कि उसके हाथों से वे हथियार न छीनें जाएं जिन्हें अमेरिकी ताकतें इज़रायल के हित में ख़त्म करना चाहती हैं, जबकि यही इज़रायल हर दिन इस देश के खिलाफ़ अपने अत्याचार और अपराध जारी रखे हुए है।”


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