ग़ाज़ा में इज़रायली नरसंहार के बीच ICJ की देरी एक नैतिक विफलता है
ग़ाज़ा इस समय इतिहास के सबसे क्रूर मानवतावादी संकटों में से एक से गुज़र रहा है। अस्पताल जलाए जा रहे हैं, स्कूल मलबे में तब्दील हो चुके हैं, बच्चे मलबे के नीचे दबे पड़े हैं और पूरा एक जनसमुदाय, भूख, प्यास, डर और गोलियों के साए में — अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। ग़ाज़ा में कुपोषण के कारण वहां के बच्चे, महिलाऐं और बुजुर्ग दम तोड़ रहे हैं, और इज़रायली आंतरिक सुरक्षा मंत्री बेन गवीर, मानवता के ख़िलाफ़ एक क्रूर बयान देते हुए कहता है कि, ग़ाज़ा में भोजन नहीं, बम भेजना चाहिए ताकि, ग़ाज़ा के निवासियों को भूखा प्यासा ख़त्म किया जा सके।
ऐसे समय में, जब पूरी दुनिया की निगाहें इस तबाही पर टिकी हैं, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (International Court of Justice – ICJ) ने इज़रायल को नरसंहार के आरोपों में अपनी सफ़ाई पेश करने के लिए छह महीने की अतिरिक्त मोहलत दे दी है। यह फैसला, ‘द गार्जियन’ समेत कई अंतरराष्ट्रीय मीडिया स्रोतों ने रिपोर्ट किया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि अब इस मामले में अंतिम फ़ैसला 2027 तक टल गया है। यह देरी, न सिर्फ़ कानूनी जटिलताओं की प्रतीक है — बल्कि एक ऐसा नैतिक पतन है, जो बताता है कि दुनिया की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था भी मौतों की चीख़ के आगे “प्रक्रियात्मक औपचारिकता” को प्राथमिकता देती है।
ग़ाज़ा: जहाँ हर दिन एक क़यामत है
ग़ाज़ा में 2023 के बाद से जारी हमलों ने अब तक 40,000 से अधिक लोगों की जान ली है, जिनमें अधिकांश बच्चे और महिलाएं हैं। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों के अनुसार, लगभग 80% बुनियादी ढांचा तबाह हो चुका है। बिजली नहीं है, पीने का पानी नहीं है, चिकित्सा व्यवस्था ज़मीन पर नहीं बची। इस नरसंहार को न सिर्फ़ प्रत्यक्ष सैन्य कार्रवाई बल्कि “भूख को हथियार” बना कर भी अंजाम दिया गया। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, ग़ाज़ा में अब “famine-like conditions” हैं। बच्चों की मौत सिर्फ़ कुपोषण और इलाज न मिलने से हो रही है, और इस सबके बीच, ICJ का कहना है — “इज़रायल को दलील तैयार करने के लिए और वक़्त चाहिए।”
न्याय की प्रक्रिया बनाम न्याय की नैतिकता
ICJ एक प्रतिष्ठित संस्था है जो अंतरराष्ट्रीय विवादों का समाधान करती है। उसका मक़सद निष्पक्षता और वैधानिक प्रक्रिया सुनिश्चित करना है। लेकिन क्या ऐसी प्रक्रियाएं, जो पीड़ितों को मरता देखती रहें, फिर भी ‘सबूतों की माँग’ में उलझी रहें — क्या उन्हें नैतिक रूप से न्यायिक कहा जा सकता है?
इज़रायल ने छह महीने की अतिरिक्त मोहलत की मांग की, यह कहते हुए कि उसे “सबूत इकट्ठा करने” हैं। अदालत ने यह स्वीकार कर लिया। लेकिन कौन से सबूत?
क्या मलबे में दबे बच्चों की तस्वीरें, बमबारी में तबाह अस्पताल, भूख से बिलखते बच्चे, इन सबकी गिनती “सबूतों” में नहीं होती?
क्या साक्ष्य अब इस हद तक ‘राजनीतिक’ हो चुके हैं कि हत्यारा देश भी अदालत से रियायतें पा सकता है?
अंतरराष्ट्रीय कानून की खोखली वास्तविकता
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के पास कोई सशक्त “एन्फोर्समेंट” की शक्ति नहीं होती। वह सिर्फ़ “निर्देश” दे सकता है। उसे अपने आदेशों के पालन के लिए सुरक्षा परिषद जैसे राजनीतिक निकायों पर निर्भर रहना पड़ता है — और वहीं पर न्याय की सबसे बड़ी हत्या होती है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका का वीटो अधिकार बार-बार इज़रायल को बचाता रहा है। यूरोपीय देश, जो मानवाधिकारों के मसीहा बनते हैं, वे भी इस नरसंहार पर चुप्पी साधे बैठे हैं।
देरी के नाम पर मौत की वैधता?
इस घटना से एक बड़ा प्रश्न उठता है: क्या “न्यायिक प्रक्रिया” इतनी धीमी हो सकती है कि जब तक न्याय मिले — तब तक लोग मर चुके हों?
Justice delayed is justice denied — यह सिर्फ़ कहावत नहीं, बल्कि ग़ाज़ा की सच्चाई है। अगर अदालत के निर्णय तब आएं जब न गवाह बचें, न पीड़ित — तो क्या वह निर्णय कोई नैतिक मूल्य रखता है? क्या ICJ के लिए यह ज़रूरी नहीं था कि वह युद्धविराम के आदेश को पहले निष्पादित करता, फिर दलीलों की प्रतीक्षा करता?
ICJ चाहे जितना भी निष्पक्ष बनने का दिखावा करे, वह भी एक ऐसी व्यवस्था का हिस्सा है जो “ताक़तवर के लिए कानून, और कमज़ोर के लिए खामोशी” का नमूना बन चुका है।
इज़रायल को दी गई मोहलत, एक राजनीतिक साज़िश?
सवाल यह भी है कि क्या यह मोहलत वास्तव में कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा थी, या फिर एक सुनियोजित देरी ताकि इज़रायल को और समय मिल सके ग़ाज़ा को पूरी तरह तबाह करने के लिए?
अगर 2027 तक फैसला टल गया है, तो क्या इज़रायल को यह संदेश नहीं मिल रहा कि उसके पास दो और साल हैं ग़ाज़ा को “वजूद से मिटा देने” के लिए?
क्या यह अदालत की निष्क्रियता नहीं, बल्कि साझेदारी नहीं बन जाती?
अरब जगत की खामोशी — एक और गुनाह
इज़रायल के समर्थन में अमेरिका और यूरोप की भूमिका जितनी स्पष्ट है, उतनी ही शर्मनाक है अरब देशों की खामोशी। अरब लीग, OIC, और तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व, सबने सिर्फ़ “निंदा प्रस्ताव” पारित करके अपने दामन बचाए हैं। न तो उन्होंने ICJ पर दबाव बनाया, न इज़रायल पर कोई आर्थिक प्रतिबंध। उल्टे कुछ अरब देश तो इज़रायल से रिश्ते सुधारने की कूटनीति में लगे हैं। ऐसे में न्याय के लिए कौन बोलेगा?
न्यायिक सुधार की आवश्यकता
ICJ जैसी संस्थाओं को अब आत्मचिंतन करने की ज़रूरत है। क्या उन्हें अपनी प्रक्रियाएं तेज़, लचीली और मानवीय बनानी चाहिए? तकनीक के इस्तेमाल से क्या तात्कालिक साक्ष्य संकलन और निर्णय संभव नहीं?
क्या अंतरराष्ट्रीय न्याय संस्थाएं सिर्फ़ युद्ध के बाद अपराधियों को पकड़ेगी? या फिर वे युद्ध रुकवाने में भी कोई भूमिका निभा सकती हैं?
अगर भविष्य में नरसंहार रोकना है, तो न्याय को तेज़, स्वतंत्र और राजनीतिक प्रभावों से मुक्त करना ही होगा।
ग़ाज़ा की चीख़े और न्याय की चुप्पी
ग़ाज़ा में हर दिन, हर घंटे मौतें हो रही हैं। बच्चे गोद में दम तोड़ रहे हैं, माताएं रोते-रोते बेहोश हो रही हैं, और दुनिया की सबसे बड़ी अदालतें ‘दलीलों की प्रतीक्षा’ में बैठी हैं। इसीलिए आज का सबसे बड़ा सवाल यही है:
क्या न्याय को इंतज़ार की इजाज़त दी जा सकती है?
या फिर यह स्वीकार करना होगा कि, देरी से मिला न्याय — न्याय नहीं, एक और अन्याय है?
यह लेख ICJ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, पश्चिमी देशों की नीति, और मुस्लिम नेतृत्व की निष्क्रियता को चुनौती देता है। ग़ाज़ा में हो रहे इस नरसंहार के बीच, दुनिया की चुप्पी एक गंभीर नैतिक संकट को दर्शाती है। जब तक न्याय की प्रक्रिया निष्क्रिय बनी रहेगी, तब तक ग़ाज़ा जैसे जनसंहार केवल आंकड़े बनते रहेंगे — और इंसानियत शर्मसार होती रहेगी।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।


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