7 अक्टूबर के बाद, हर दिन “बच्चों से भरी एक कक्षा” को मार रहा इज़रायल: यूएन
7 अक्टूबर 2023 से शुरू हुए इज़रायल-ग़ाज़ा युद्ध ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया है। लेकिन इस युद्ध का सबसे भयावह और शर्मनाक पहलू यह है कि इसका सबसे बड़ा शिकार मासूम बच्चे बने हैं। संयुक्त राष्ट्र की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, इज़रायली हमलों में अब तक 18,000 से अधिक फ़िलिस्तीनी बच्चे मारे जा चुके हैं। यह आंकड़ा प्रतीकात्मक रूप से उस “एक क्लासरूम” के बराबर है जिसमें औसतन 30 से 35 छात्र होते हैं, यानी हर दिन एक कक्षा के सभी बच्चों को मार दिया गया।
बच्चों को कब, कहाँ और कैसे मारा गया?
रिपोर्ट में बताया गया है कि ये हत्याएं किसी युद्धक्षेत्र में आमने-सामने की लड़ाई में नहीं हुईं, बल्कि:
जब बच्चे अपने घरों में सो रहे थे, तब इज़रायली बमबारी ने उन्हें मौत की नींद सुला दिया।
जब उन्होंने स्कूलों में शरण ली, तो वहां भी इज़रायली मिसाइलें पहुंच गईं।
जब वे युद्ध के डर से अपने परिवारों के साथ विस्थापन की हालत में थे, तो रास्ते में ड्रोन और एयर स्ट्राइक ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।
जब वे खाना या पीने का पानी लेने निकले, तो भी उन्हें टारगेट किया गया।यानी ये हत्याएं किसी “कोलैटरल डैमेज” का नतीजा नहीं, बल्कि एक संगठित और सोची-समझी सैन्य रणनीति का हिस्सा हैं। वह आंकड़े जो इंसानियत को शर्मसार कर दें:
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार:
18,000+ बच्चे अब तक मारे जा चुके हैं।
56,000 से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है पूरे युद्ध के दौरान।
1 लाख से अधिक बच्चे घायल हुए हैं — जिनमें से कई हमेशा के लिए अपंग हो गए हैं।
हज़ारों बच्चों को मलबों से निकाला गया, जिनका शरीर पहचान के काबिल नहीं रहा।
सैकड़ों बच्चे अब भी लापता हैं, जिनके बारे में अंदेशा है कि वे मलबे में दबे हैं या सामूहिक क़ब्रों में दफ़्न कर दिए गए हैं।
शिक्षा नहीं, शवगृह में बदल गए स्कूल
ग़ाज़ा पट्टी में अब शायद ही कोई स्कूल बचा हो जो पूरी तरह तबाह न हुआ हो। रिपोर्ट बताती है कि 70% से ज़्यादा स्कूल या तो नष्ट हो चुके हैं या बुरी तरह क्षतिग्रस्त हैं। कई स्कूलों को संयुक्त राष्ट्र ने अस्थाई राहत शिविरों में बदला था, लेकिन इज़रायल ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। यहां तक कि अस्पतालों और एम्बुलेंसों को भी जानबूझकर निशाना बनाया गया।
मनोवैज्ञानिक तबाही: एक पीढ़ी जो केवल मौत और डर के साथ बड़ी हो रही है
मरने वाले तो मर गए, लेकिन जो ज़िंदा हैं, उनका मानसिक स्वास्थ्य किस हालत में है — इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। हर दिन डर, बम, लाशें, खून और मलबे के बीच सांस लेते इन बच्चों की आंखों में अब बचपन की मासूमियत नहीं, बल्कि भय, गुस्सा और ग़ुस्सा है।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय की चुप्पी
सबसे शर्मनाक बात यह है कि इतने भयानक आंकड़ों और नरसंहार के बावजूद, दुनिया के अधिकतर ताक़तवर देश, ख़ासकर अमेरिका और यूरोपीय संघ, इस पर पूरी तरह चुप हैं। कई देशों ने तो इज़रायल का खुला समर्थन भी किया है और उसे हथियारों की सप्लाई जारी रखी है।
यह “युद्ध” है या “जनसंहार”?
जब एक पक्ष के पास अत्याधुनिक हथियार हों, और दूसरा पक्ष पानी, दवा, बिजली और शरण से भी महरूम हो — और जब उस युद्ध में हर दिन मासूम बच्चों की लाशें बिछती हों — तो क्या हम उसे युद्ध कह सकते हैं? या फिर यह एक सुनियोजित जनसंहार है? यह सवाल अब सिर्फ फिलिस्तीनियों का नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत का है।18,000 बच्चों की मौत सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है — यह 18,000 कहानियाँ हैं, 18,000 सपने हैं, 18,000 परिवारों का उजड़ जाना है।


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