अलगाववाद की मांग देशहित के विरुद्ध साज़िश!

अलगाववाद की मांग देश हित के विरुद्ध साज़िश!

भारत एक लोकतांत्रिक, और सेक्युलर देश है जहाँ सभी धर्म और समुदाय के लोग विभिन्न भाषाओं के बाद भी एक दुसरे से जुड़े हुए कठिन समय में एक दुसरे की सहायता के लिए खड़े रहते हैं, हमारे देश का यही प्यार, मोहब्बत, भाईचारा और आपसी सौहार्द पूरी दुनियां के लिए प्रेरणास्रोत है। कोरोना के समय इस भाईचारे को पूरी दुनियां ने देखा कि जब घर वाले कोरोना के भय के कारण लाश छोड़कर चले गए तो एक मुसलमान की लाश को हिन्दुओं ने कंधे पर उठाकर दफ़्न किया और हिन्दू का अंतिम संस्कार मुसलमानों ने किया।

आजकल “हिंदू राष्ट्र” को लेकर जो हवा चलायी जा रही है, वह उसी संवैधानिक संकल्प को तोड़ रही है जिसके सामने तमाम अलगाववादी विचार अपनी नैतिक आभा खो बैठे थे। ‘हिंदू राष्ट्र’ के नाम पर लगाया जाने वाला हर नारा खालिस्तान समेत तमाम अलगाववादी आंदोलन को तर्क मुहैया कराता है।

यह देखना वाक़ई तकलीफ़ेदह है कि जिस पंजाब में तमाम कुर्बानियों के बाद ‘शांति’ एक स्थायी चरण में प्रवेश कर गयी थी वहाँ फिर से खालिस्तान का मसला उठ गया है। ‘वारिस पंजाब दे’ के मुखिया अमृतपाल सिंह खालसा को भिंडरावाले का नया रूप बताया जा रहा है जिसने उन ख़ूनी दिनों की याद ताज़ा कर दी है जब खालिस्तानी उग्रवादियों ने गुरुओं की इस धरती का चैन छीन लिया था

हैरानी की बात ये है कि अमृतपाल सिंह खालसा को कुछ समय पहले तक कोई जानता भी नहीं था। न ही वह भिंडरावाले की तरह दमदमी टकसाल जैसी किसी सिख धार्मिक संस्था का प्रमुख ही था, लेकिन अचानक ही वह अलगाववादियों का पोस्टरब्वाय बन गया। उधर, कट्टरपंथी सिख संगठन दल खालसा ने जी-20 देशों के प्रतिनिधियों की हालिया अमृतसर यात्रा के पहले पत्र लिखकर कहा है कि ‘राज्य में चुनावी घटनाक्रम के बावजूद पंजाब के लोग आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए संघर्ष में लगे हुए हैं।’ यानी इस मसले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाने की कोशिश की जा रही है।

जो आज पंजाब में दिख रहा है, वह कल उत्तर पूर्व के राज्यों से लेकर तमिलनाडु तक में दिख सकता है। याद कीजिए बीते साल जुलाई में पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.राजा ने यह तमिलनाडु की स्वायत्ता पर केंद्र के हमले का आरोप लगाते हुए चेताया था कि हमें ‘अलग तमिलनाडु की माँग को मजबूर न किया जाए।’

असम समेत उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में चल रही अलगवावादी माँगों को इसी के ज़रिए कमज़ोर पड़ते देखा गया है। दक्षिण भारत में तमिलों के लिए अलग द्रविड़नाडु (द्रविड़ों का देश) बनाने की माँग तो औपचारिक रूप से 1963 में यानी आज़ादी के 16 साल बाद छोड़ी गयी थी।

ज़ाहिर है, इन अलगवावादी आंदोलनों के कमज़ोर पड़ने का बड़ा कारण जनता से समर्थन न मिलना था। सरकार हिंसक आंदोलन को हथियारों की ताक़त से दबा सकती है, लेकिन असल जीत तभी मिलती है जब जनमानस अलगाववाद के विचार के ख़िलाफ़ हो जाए। खालिस्तान से लेकर द्रविड़नाडु तक के मामले में यही हुआ और इसकी वजह थी भारत का ‘सेक्युलर’ संविधान।

हर धर्म के लोगों ने इस सपने के लिए ख़ून बहाया था और सभी को इसका फल चखना था। आज़ादी के आंदोलन के नायकों ने समतावादी सेक्युलर संकल्पों में गूँथकर नये भारत के संविधान का निर्माण किया जहाँ धर्म, जाति, क्षेत्र की भिन्नता के बावजूद हर नागरिक बराबर था। जहाँ तक मेरा प्रश्न है मैं हर प्रकार के अलगाववाद की मांगों का विरोध करता हूँ, चाहे आज़ाद कश्मीर की बात हो, हिन्दू राष्ट्र या ख़ालिस्तान की। और इस प्रकार की मांग करने वालों के विरुद्ध सख़्त और कठोर कार्यवाई की मांग करता हूँ।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।

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