अरबईन और कर्बला में उमड़ने वाला करोड़ों का हुजूम इस्लामी कैलेंडर के मोहर्रम महीने की 10 तारीख को कर्बला क मैदान में यज़ीद और उसकी फौजों ने तीन दिन की भूख और प्यास में घेर कर मार डाला था।
अरबईन के दिन इराक में इस घटना के चालीसवें दिन करोड़ों की संख्या में ज़ाएरीन उमड़ कर कर्बला वालों से अपनी वफदारी और उनके मिशन को ज़िंदा रखने का अहद करते हैं।
10 मोहर्रम सन् 61 हिजरी को कर्बला की जलती ज़मीन पर पैग़म्बर स.अ. के घराने ने इस्लाम और इंसानियत को ज़िंदगी देने के लिए अपनी ज़िंदगी के चिराग़ ऐसे बुझाए कि उनकी रौशनी हर अंधेरे में हक़ को तलाश करने वालों को आज भी रास्ता दिखाती है, हां उसके लिए केवल दो चीज़ों की ज़रूरत है, पहली नेक नीयत, दूसरे मुकम्मल यक़ीन।
अरबईन के दिन कई देशों में सरकारी छुट्टी होती है और अहलेबैत अ.स. के शिया अज़ादारी करते हैं और मातमी दस्ते के साथ सड़कों पर जुलूस ले कर निकलते हैं । सफ़र के महीने में करोड़ों शिया कुछ क़ाफ़िलों में कुछ अलग अरबईन के दिन कर्बला पहुंचने की कोशिश करते हैं और पहुंचते हैं, अरबईन के दिन की अज़ादारी दुनिया भर में शियों के बड़े प्रोग्रामों में से एक अहम प्रोग्राम है।
ज़ियारते अरबईन पर इमामों की ताकीद की वजह से करोड़ों मुसलमान ख़ास कर शिया पूरी दुनिया से कर्बला के लिए निकलते हैं। लाखों की तादाद तो उन ज़ायरीन की होती है जो पैदल इस मुहिम में शामिल होते हैं।
हर साल पिछले साल से ज़्यादा तादाद में लोग इमाम हुसैन अ.स. के चेहलुम के मौक़े पर कर्बला में जमा होते हैं। पैग़म्बर की हदीस है कि बेशक इमाम हुसैन अ.स. की शहादत के कारण मोमेनीन के दिलों में ऐसी गर्मी पैदा हो गई है जो कभी ठंडी नहीं हो सकती।
वरिष्ठ शिया स्कॉलर अल्लामा क़ाज़ी तबातबाई के अनुसार कर्बला पैदल जाने वाले क़ाफ़िलों का सिलसिला इमामों के दौर से रहा है। हद तो यह है कि बनी उमय्या और बनी अब्बास के ज़ुल्म और अत्याचार के बावजूद इमाम हुसैन अ.स. के चाहने वालों ने कर्बला की ज़ियारत को नहीं छोड़ा।
कैसी भी कठिनाईयां रही हों, कैसे भी ज़ुल्म रहे हों लेकिन इमाम हुसैन अ.स. के चाहने वालों ने हर दौर में कर्बला पहुंच के अपनी मोहब्बत और अहलेबैत अ.स. से अपने सच्चे रिश्ते का साबित किया है।