इज़रायल ने सीरिया को बाँटने और ईरान से जंग की साज़िश रची: अल-जूलानी

इज़रायल ने सीरिया को बाँटने और ईरान से जंग की साज़िश रची: अल-जूलानी

सीरियाई राष्ट्रपति अहमद अल-शरअ अल-जूलानी ने बड़ा खुलासा करते हुए कहा है कि इज़रायल का असली मक़सद सीरिया को टुकड़ों में बाँटना और उसे ईरान के साथ सीधी जंग में उलझाना था। उन्होंने बताया कि इज़रायल की रणनीति सिर्फ़ बशर अल-असद की सरकार को गिराना नहीं थी, बल्कि पूरे क्षेत्र को अस्थिर कर के अपनी सुरक्षा और विस्तारवादी हितों को मज़बूत करना था।

अहमद अल-शरअ ने शुक्रवार को सीरियाई चैनल अल-इख़बारिया को दिए एक टेलीविज़न इंटरव्यू में कहा कि “इज़रायल, बशर अल-असद की सरकार के गिरने से हैरान था और उसने सीरिया को ईरान के साथ युद्ध की ओर धकेलने की कोशिश की।” उन्होंने आगे कहा कि सीरिया इस समय इज़रायल के साथ एक सुरक्षा समझौते की बातचीत में है। इस समझौते का लक्ष्य 1974 के समझौते को बहाल करना या उसी तरह का कोई नया ढांचा तैयार करना है, ताकि सीमा पर स्थिरता और शांति बनी रहे।

राष्ट्रपति ने यह भी याद दिलाया कि इज़रायल ने 1967 की जंग से अब तक सीरिया की गोलान पहाड़ियों पर क़ब्ज़ा कर रखा है। 2024 के अंत में बशर अल-असद के सत्ता से हटने के बाद, इज़रायल ने इस क्षेत्र में अपनी सैन्य घुसपैठ और ज़्यादा बढ़ा दी है। सीरिया इसे अपनी संप्रभुता के लिए सीधा ख़तरा मानता है।

इस बड़े खुलासे में अल-जूलानी ने इतनी देर क्यों की?
यदि इज़रायल का मक़सद सचमुच सीरिया का विभाजन था, तो फिर अल-जूलानी उसी इज़रायल के साथ सुरक्षा समझौते की बहाली या नए ढाँचे की बातचीत क्यों कर रहे हैं? यह विरोधाभास सिर्फ जूलानी की नीतियों पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता, बल्कि यह भी साबित करता है कि इज़रायल की भूमिका महज़ “रक्षात्मक” नहीं बल्कि गहराई से “आक्रामक और विभाजनकारी” है।

अल-जूलानी, जो खुद को “सीरिया के मुजाहिद” के तौर पर पेश करते हैं, लंबे समय तक विभिन्न आतंकी गुटों से जुड़े रहे हैं। कभी अल-कायदा और कभी जबहतुन्नुसरा के नाम से उनकी पहचान बनी। लेकिन आज वे इदलिब और उत्तरी सीरिया में खुद को एक “राजनीतिक और सुरक्षा शक्ति” के रूप में पेश करना चाहते हैं। यह बदलाव अपने आप में बताता है कि जूलानी का मक़सद केवल धार्मिक या प्रतिरोधी नहीं, बल्कि सत्ता और क्षेत्रीय हितों को साधना है। जब वह इज़रायल जैसे देश से समझौते की बात करते हैं, तो यह उनके असली इरादों की परत खोल देता है।

इज़रायल की रणनीति शुरू से ही पड़ोसी देशों को कमजोर करने की रही है। लेबनान, सीरिया, फ़िलिस्तीन—हर जगह उसका हस्तक्षेप दिखाई देता है। अब यदि अल-जूलानी जैसे नेता इज़रायल के साथ सुरक्षा व्यवस्था की बहाली पर चर्चा कर रहे हैं, तो यह स्पष्ट है कि इज़रायल इन गुटों को एक साधन की तरह इस्तेमाल कर रहा है। यानी एक ओर वह “सीरिया के विभाजन” की साज़िश रचता है, दूसरी ओर उन्हीं ताक़तों के साथ गुप्त बातचीत करता है जो खुद को “मुक़ाबले” का प्रतीक बताते हैं।

इस तरह का दोहरा खेल केवल इज़रायल की नीतियों का हिस्सा नहीं, बल्कि अल-जूलानी जैसे व्यक्तियों की कमजोरी और अवसरवादिता को भी उजागर करता है। वे एक तरफ़ इज़रायल के षड्यंत्रों को दुनिया के सामने लाते हैं ताकि जनता के बीच लोकप्रिय बने रहें, और दूसरी तरफ़ उसी इज़रायल के साथ सौदेबाज़ी कर क्षेत्रीय शक्ति के रूप में अपनी स्थिति मज़बूत करना चाहते हैं। यह स्पष्ट विरोधाभास उनकी नीयत को बेनकाब करता है।

असल सवाल यह है कि क्या इज़रायल को सिर्फ़ “रक्षात्मक शक्ति” कहा जा सकता है? यदि उसका मक़सद केवल अपनी सीमाओं की सुरक्षा होता, तो वह सीरिया, ग़ाज़ा, लेबनान या क़तर तक जाकर बमबारी क्यों करता? क्यों वह लगातार क्षेत्रीय अस्थिरता को भड़काता है? क्यों वह हर उस गुट से संपर्क बनाए रखता है जिसे वह सार्वजनिक तौर पर “दुश्मन” कहता है? यही वह बिंदु है जहाँ यह साबित होता है कि इज़रायल की असली रणनीति पूरे पश्चिम एशिया को छोटे-छोटे हिस्सों में तोड़ना और हर जगह अपने प्रभाव का विस्तार करना है।

अल-जूलानी और इज़रायल का यह विरोधाभास केवल एक नेता और एक राज्य की कहानी नहीं है, बल्कि यह पूरे क्षेत्र की त्रासदी है। जहां जनता अपने घरों, शहरों और पहचान को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है, वहीं सत्तालोभी नेता और आक्रामक शक्तियाँ आपस में सौदेबाज़ी कर रही हैं। यही वह वास्तविकता है जो बताती है कि पश्चिम एशिया में शांति तभी संभव होगी जब न तो इज़रायल जैसी आक्रामक ताक़तों को विस्तार का मौक़ा मिले और न ही अल-जूलानी जैसे अवसरवादी नेताओं को जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करने की इजाज़त दी जाए।

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