वॉशिंगटन में ईरान के परमाणु मामले को “सुरक्षा ख़तरे” के तौर पर पेश किया गया

वॉशिंगटन में ईरान के परमाणु मामले को “सुरक्षा ख़तरे” के तौर पर पेश किया गया

अमेरिकी कांग्रेस के रिसर्च सेंटर की कई आधिकारिक रिपोर्टों का अध्ययन यह साफ़ दिखाता है कि कैसे वॉशिंगटन ने तथाकथित “हथियार नियंत्रण” और “अणु प्रसार रोकथाम” (non-proliferation) के नाम पर बनी संधियों और घरेलू क़ानूनों का इस्तेमाल अपनी भौगोलिक-राजनीतिक (geopolitical) बढ़त और तकनीकी एकाधिकार बनाए रखने के लिए किया है — ख़ासकर ईरान जैसे स्वतंत्र देशों के ख़िलाफ़।

इन रिपोर्टों से पता चलता है कि अमेरिका ने बीते कई दशकों में हथियार नियंत्रण और परमाणु प्रसार रोकथाम के लिए एक जटिल क़ानूनी और निगरानी प्रणाली बनाई है। देखने में तो यह “वैश्विक शांति” की रक्षा के लिए है, लेकिन असल में यह तकनीक के एकाधिकार, राजनीतिक नियंत्रण और स्वतंत्र देशों पर दबाव डालने का एक औज़ार है।

कांग्रेस की ही रिपोर्टों के अनुसार, वॉशिंगटन ने अंतरराष्ट्रीय और घरेलू दोनों ही स्तरों पर ऐसा ढांचा तैयार किया है जो ईरान की सुरक्षा, तकनीकी विकास और राष्ट्रीय हितों को कमज़ोर करने के लिए इस्तेमाल होता है। इन्हीं कानूनों और संधियों की आड़ में ईरान की परमाणु गतिविधियों और वैज्ञानिक शोध को “सुरक्षा मुद्दा” बना दिया गया है, ताकि उसके रणनीतिक सामर्थ्य को सीमित रखा जा सके।

अमेरिका का बहुस्तरीय नियंत्रण तंत्र
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही अमेरिका ने कई अंतरराष्ट्रीय संधियाँ और घरेलू क़ानून बनाए जिनके ज़रिए वह दुनिया में तकनीक और सुरक्षा का प्रभुत्व बनाए रखना चाहता है। इनमें प्रमुख हैं:

  • परमाणु हथियार प्रसार रोक संधि (NPT)
  • परमाणु परीक्षणों पर व्यापक प्रतिबंध संधि (CTBT)
  • रासायनिक हथियार निषेध सम्मेलन
  • जैविक हथियार निषेध सम्मेलन

इन संधियों के साथ ही, अमेरिका के घरेलू कानून — जैसे “परमाणु ऊर्जा अधिनियम”, “नॉन-प्रोलिफरेशन एक्ट” और “हथियार निर्यात नियंत्रण अधिनियम” — सरकार को यह अधिकार देते हैं कि वे अपनी विदेश नीति को क़ानूनी और आर्थिक रास्तों से भी लागू करे। इन कानूनों की मदद से अमेरिका ने वित्त, तकनीक और औद्योगिक सहयोग पर वैश्विक नियंत्रण का तंत्र खड़ा किया है। इसका नतीजा यह है कि ईरान जैसे देशों के वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास पर निरंतर अंकुश लगा रहता है।

1- तकनीकी एकाधिकार का उद्देश्य
NPT जैसी संधियों के ज़रिए दुनिया को दो वर्गों में बाँट दिया गया —

(1) वे देश जिनके पास परमाणु हथियार हैं और जिन्हें वैध घोषित कर दिया गया,

(2) और वे देश जिन्हें हमेशा के लिए इस तकनीक से वंचित कर दिया गया।

इस तरह अमेरिका ने “शांति” के नाम पर शक्ति और तकनीक के असमान ढांचे को क़ानूनी रूप दे दिया, जिससे ईरान जैसे देशों की स्वतंत्र वैज्ञानिक प्रगति रुक गई।

2- राजनीतिक दबाव का औज़ार
अमेरिका इन संधियों और कानूनों का उपयोग ईरान के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय सहमति (consensus) बनाने के लिए करता है। अपने घरेलू कानूनों का इस्तेमाल वह उन देशों और कंपनियों को धमकाने के लिए करता है जो ईरान से वैज्ञानिक या औद्योगिक सहयोग करना चाहती हैं। परिणामस्वरूप, उसके सहयोगी देश भी अमेरिकी प्रतिबंधों के डर से ईरान से दूरी बनाए रखते हैं।

कांग्रेस की रिपोर्ट बताती है कि इस ढांचे ने अंतरराष्ट्रीय कानून और अमेरिकी घरेलू कानून के बीच की सीमाओं को मिटा दिया है। “एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट बैंक एक्ट” और “नॉन-प्रोलिफरेशन एक्ट 1994” जैसे कानूनों के ज़रिए अमेरिका:

  • उन देशों और कंपनियों पर प्रतिबंध लगाता है जो ईरान से सहयोग करते हैं,
  • और अपने घरेलू फैसलों को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं पर थोपता है।

साथ ही, अमेरिका खुद उन बहुपक्षीय संधियों से निकल गया है जो उस पर भी निगरानी लागू करती थीं — जैसे “मध्यम दूरी के मिसाइल प्रतिबंध संधि”, “एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल संधि” और “ओपन स्काईज़ ट्रीटी”। इस तरह अमेरिका “अंतरराष्ट्रीय कानून” को साझा व्यवस्था नहीं, बल्कि अपने वर्चस्व और प्रतिबंधों को वैध ठहराने के साधन के रूप में इस्तेमाल करता है।

ईरान पर राजनीतिक और आर्थिक दबाव
इन्हीं कानूनी संरचनाओं के ज़रिए अमेरिका ने ईरान के यूरेनियम संवर्धन, वैज्ञानिक शोध और शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम को “ख़तरा” घोषित कर दिया। “एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट बैंक एक्ट”, “हथियार निर्यात नियंत्रण अधिनियम” और “एक्सपोर्ट एडमिनिस्ट्रेशन एक्ट” जैसे कानूनों की आड़ में उसने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और कंपनियों को ईरान से सहयोग करने से रोक दिया। नतीजा यह हुआ कि, ईरान में उन्नत तकनीकों के विकास का वातावरण लगातार जोखिम भरा और सीमित होता चला गया।

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IAEA) और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद जैसी संस्थाओं को भी अमेरिका ने इस प्रक्रिया में अपने राजनीतिक हितों के अनुसार इस्तेमाल किया, ताकि ईरान के परमाणु मामले को एक “वैश्विक सुरक्षा संकट” की तरह प्रस्तुत किया जा सके।
“नॉन-प्रोलिफरेशन” से “ईरान को रोकने की रणनीति” तक
कांग्रेस की रिपोर्टों के मुताबिक अमेरिका ने हथियार नियंत्रण के पूरे क़ानूनी ढांचे को “वैश्विक शांति” नहीं, बल्कि “वर्चस्व के स्थायित्व” के लिए इस्तेमाल किया है। इस व्यवस्था में ईरान को पश्चिम एशिया के एक “स्वतंत्र लेकिन नियंत्रित किए जाने योग्य” देश के रूप में चिन्हित किया गया है।
संधियों और घरेलू कानूनों का संयोजन बनाकर अमेरिका ने ऐसा ढांचा तैयार किया है जिसमें ईरान की वैज्ञानिक प्रगति या तकनीकी स्वतंत्रता को कानूनी, आर्थिक और राजनीतिक दबावों के ज़रिए रोका जा सके।
असल मायनों में, ईरान का परमाणु मामला “सुरक्षा ख़तरा” नहीं, बल्कि अमेरिका की “तकनीकी और भू-राजनीतिक एकाधिकार नीति” का परिणाम है — एक ऐसा नेटवर्क जो “शांति” के नाम पर वैश्विक नियंत्रण और ईरान की स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए रचा गया है।

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