सीरिया मुद्दे पर पर ईरान और तुर्की का नजरिया
हर बड़े देश की यह कोशिश रहती है कि वह अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाए ताकि वह ज्यादा मजबूत हो सके, और इस प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि से उसे आर्थिक फायदे भी मिलते हैं। जिन देशों से रिश्ते होते हैं, उनकी मदद सीधे या परोक्ष रूप से की जाती है। ग़ाज़ा युद्ध में अमेरिका द्वारा इज़रायल को मदद, या रूस से युद्ध में यूक्रेन को मदद का उदाहरण दिया जा सकता है। इसी तरह रूस और ईरान ने सीरिया में बशार अल-असद और उनके समर्थकों की मदद की। वैसे भी ग़ाज़ा युद्ध ने कई देशों के दोहरे मानकों चरित्रों को उजागर किया है।
अब जब सीरिया की सत्ता बशार अल-असद के हाथ में नहीं है, तो इसके बाद क्या होगा, यह कहना मुश्किल है, लेकिन इस पर इज़रायली हमलों को देखते हुए यह साफ होता है कि बशार को सत्ता से हटाने का असल उद्देश्य क्या था। तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगान सीरिया की स्थिति को लेकर काफी चिंतित थे और 2011 युद्ध से लगातार विद्रोहियों की मदद कर रहे थे। ग़ाज़ा नरसंहार पर वह केवल बयान देते रहे लेकिन, फ़िलिस्तीनियों के समर्थन में या उनके नरसंहार पर वह कभी खुलकर आगे नहीं आएं। अगर इस बात को इस तरह कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा कि, ग़ाज़ा की स्थिति ने उन्हें परेशान ज़रूर किया लेकिन इतना परेशान नहीं किया कि, वह ग़ज़ावासियों की किसी प्रकार की सहायता कर सकें। केवल औपचारिकता पूरी करने के लिए उन्हें थोड़े-थोड़े दिन में ग़ाज़ा के लोगों के समर्थन में या इज़रायल के खिलाफ बयान देना पड़ता था।
बशार अल-असद के रूस चले जाने और सीरिया पर इज़रायली हमलों के बाद एर्दोगान को इसी तरह का बयान सीरिया के लिए भी देना पड़ेगा, यह वाकई उनके लिए चिंता का विषय है, हालांकि ईरान ने यह दिखाया है कि वह फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर बात करता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह इस्लामी दुनिया का तथाकथित नेता बनने की कोशिश कर रहा है, बल्कि उसे फ़िलिस्तीन और अपनी जिम्मेदारियों का अहसास है। ग़ाज़ा के लोगों के लिए ईरान की ओर से सिर्फ बयानबाजी नहीं हुई, उसने परोक्ष रूप से उनका साथ दिया है, इसी कारण वह उन शक्तियों के निशाने पर है जो फ़िलिस्तीनियों के ख्वाबों को पूरा नहीं होने देना चाहतीं।
ईरानी नेता इस बात से वाकिफ रहे हैं कि बशार अल-असद में चाहे जितनी भी कमी रही हो, लेकिन उनके सत्ता में रहने का फ़िलिस्तीन के मुद्दे के लिए महत्व था। उनके रहते इज़रायल के लिए सीरिया पर इस तरह की बमबारी करना मुश्किल था, जैसा कि वह अब कर रहा है। 11 दिसंबर, 2024 को आने वाली खबर के अनुसार, इज़रायल ने 48 घंटों में सीरिया के 350 से ज्यादा सैन्य ठिकानों पर बमबारी की थी। बशार अल असद की सरकार के समय जिस अर्दोगान को वहां की चिंता सताए रहती थी, सीरिया पर लगातार इज़रायली हमले के बाद उनकी वह चिंता हमेशा के लिए समाप्त हो गई। इज़रायल का कहना है कि इन हमलों में अधिकतर रणनीतिक हथियारों के भंडार को निशाना बनाया गया।
इज़रायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का कहना है, “सीरिया में बशारअल-असद सरकार के पतन बाद इज़रायल के खिलाफ हथियारों के उपयोग को रोकने के लिए पड़ोसी देश, सीरिया में हवाई हमले जरूरी थे।” इज़रायली सेना के बयान में यह बताया गया है कि “युद्धक विमानों ने सीरिया के हवाई रक्षा प्रणाली, सैन्य हवाई अड्डों, मिसाइल डिपो और दमिश्क, होम्स, टार्टस, लताकिया और पालमेरा शहरों में हथियारों के भंडार और सैन्य स्थलों सहित दर्जनों स्थानों को निशाना बनाया है।” सवाल यह है कि बशार अल-असद ने हथियारों का भंडार रूस नहीं भेजा, तो फिर बशार को हटाने वाले और बहादुर माने जाने वाले योद्धा अपनी बहादुरी और ताकत का प्रदर्शन क्यों नहीं कर पा रहे हैं? उन्हें किस प्रकार की ट्रेनिंग दी गई है कि उनकी सफलता संदिग्ध हो रही है या वे किसी विशेष उद्देश्य के तहत सत्ता में आए हैं?
बशार अल-असद कोई आदर्श नेता नहीं थे। वैसे भी मध्य-पूर्व में आदर्श नेताओं की खोज बहुत मुश्किल है। बशार अल-असद लोकतंत्र समर्थक नेता नहीं थे, और मध्य-पूर्व में लोकतंत्र समर्थक नेताओं की खोज भी बहुत मुश्किल है। फिलहाल यह देखना होगा कि सीरिया से किस देश के फायदे जुड़े थे और बशार के अलावा कौन से नेताओं ने सीरिया की स्थिति को खराब करने में अहम भूमिका निभाई। यह भी देखना होगा कि बशार अल-असद के बाद सीरिया की स्थिति क्या होगी, क्योंकि इज़रायली बमबारी और बशार विरोधी योद्धाओं के तमाशाई बन जाने से संदेह उत्पन्न होना स्वाभाविक है।
इन परिस्थितियों में ईरान के सर्वोच्च नेता अली ख़ामेनेई के आरोपों को नज़रअंदाज करना आसान नहीं है। आयतुल्लाह अली ख़ामेनेई ने आरोप लगाया है कि “सीरिया में बशार अल-असद की सरकार अमेरिका और इज़रायल की योजना के कारण खत्म हुई है।” 11 दिसंबर, 2024 को अली ख़ामेनेई ने कहा, “सीरिया के एक पड़ोसी देश ने इस योजना में हिस्सा लिया था जिसने विद्रोहियों का समर्थन किया।” यह माना जाता है कि उनका इशारा तुर्की की तरफ था। उनके अनुसार, “जो कुछ भी सीरिया में हुआ, उसकी बुनियादी योजना अमेरिका और इज़रायल के कमांड रूम्स में बनी थी। हमारे पास इसके सबूत हैं। सीरिया की एक पड़ोसी सरकार भी इसमें शामिल थी।” उनकी यह बात तुर्की को शक के घेरे में डालती है क्योंकि ग़ाज़ा युद्ध में एर्दोगन बयानबाजी से काम चला रहे थे। तुर्की नाटो का सदस्य है, उसने कभी नाटो से अलग होने की गंभीर रूप से बात नहीं की, लेकिन ब्रिक्स की सदस्यता प्राप्त करने की गंभीर कोशिश की है।
तुर्की पर शक की वजह यह भी है कि उस पर बशार की सरकार गिराने के लिए विद्रोही समूहों की मदद करने के आरोप लगते रहे हैं। दरअसल, तुर्की के अलगाववादी कुर्द रजब तैयब एर्दोगन के लिए एक चिंता का विषय रहे हैं। उन्हें यह चिंता थी कि यदि सीरिया के कुर्द ज्यादा सशक्त या ताकतवर हो गए तो तुर्की के लिए खतरा बढ़ जाएगा, क्योंकि इराक के कुर्द पहले ही काफी ताकतवर बन चुके हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि सीरिया की स्थिति में बदलाव उनके लिए संतोषजनक होगा। तुर्की के अलगाववादी कुर्दों को यदि बशार के समर्थक मदद देने लगें, तो फिर एर्दोगन क्या करेंगे? आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने यह स्पष्ट कर दिया है कि “ईरान की अगुवाई में गठबंधन क्षेत्र में फिर से मजबूत होगा… आप जितना दबाव डालेंगे, प्रतिरोध उतना ही मजबूत होगा। आपके अपराध जितने बढ़ेगे, हमारे संकल्प में उतना ही इज़ाफ़ा होगा। आप इस प्रतिरोध से जितना लड़ेगे, यह उतना ही फैलने वाला होगा।”
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।


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