दुनिया में बदलाव के प्रेरक बने “छात्रों” के आंदोलन
युवाओं में दुनिया को बदलने की ताकत होती है। जब अन्याय और अत्याचार अपनी हदें पार कर जाता है, तो शैक्षिक संस्थान विरोध प्रदर्शनों का केंद्र बन जाते हैं। फिलहाल, दुनिया भर के छात्र फिलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि सकारात्मक बदलाव लाने के लिए युवाओं ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए हैं। आइए, ऐसे ही छह प्रदर्शनों के बारे में जानते हैं।
इजरायल विरोधी प्रदर्शन:
अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय (न्यूयॉर्क) से शुरू हुआ इज़रायल विरोधी प्रदर्शन अब देश के अन्य शैक्षणिक संस्थानों में भी फैल चुका है। ग़ाज़ा पर जारी इज़रायली आक्रमण के खिलाफ युवा सोशल मीडिया से विरोध करते हुए अब सड़कों पर उतर आए हैं। फिलिस्तीन समर्थक प्रदर्शन सिर्फ अमेरिका ही नहीं, बल्कि दुनिया भर की यूनिवर्सिटियों में हो रहे हैं, जिनमें पेरिस यूनिवर्सिटी के छात्रों का विरोध उल्लेखनीय है।
सोवेटो का विरोध:
16 जून 1976 की सुबह सोवेटो, दक्षिण अफ्रीका के विभिन्न स्कूलों के लगभग 20,000 काले छात्रों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया, जिसका उद्देश्य पाठ्यक्रम में शामिल नस्लवादी पाठों को रद्द कराना था। यह प्रदर्शन उस समय हिंसक हो गया जब उनका सामना सशस्त्र पुलिस बल से हुआ। इसमें 700 लोग मारे गए और 1,000 से अधिक घायल हुए थे। यह विरोध तेजी से अन्य शैक्षणिक संस्थानों में फैल गया और अंततः सरकार को झुकना पड़ा। इसके बाद से 16 जून को दक्षिण अफ्रीका में युवाओं के दिन के रूप में मनाया जाने लगा।
मखमली क्रांति (वेल्वेट रेवोल्यूशन):
17 नवंबर 1989 को हजारों छात्रों ने चेकोस्लोवाकिया में सरकार के खिलाफ सबसे बड़ा प्रदर्शन किया, जिसके परिणामस्वरूप अधिनायकवादी व्यवस्था और कम्युनिस्ट सरकार का अंत हो गया। प्रदर्शनकारियों ने इस तिथि को इसलिए चुना क्योंकि यह अंतर्राष्ट्रीय छात्र दिवस था।
वियतनाम युद्ध विरोधी प्रदर्शन:
वियतनाम युद्ध के दौरान, अमेरिका में प्रदर्शन मई 1970 में शुरू हुआ, जिसमें 880 से अधिक शैक्षणिक संस्थानों के 10 लाख से ज्यादा छात्रों ने एकजुटता का संदेश देते हुए शक्तिशाली प्रदर्शन किया। इन प्रदर्शनों का उद्देश्य वियतनाम युद्ध को बंद कराना था।
“ग्रीन्सबोरो” धरना:
1 फरवरी 1960 को नॉर्थ कैरोलिना एग्रीकल्चरल एंड टेक्निकल स्टेट यूनिवर्सिटी के चार अफ्रीकी-अमेरिकी छात्रों ने ग्रीन्सबोरो, नॉर्थ कैरोलिना में स्थित वूलवर्थ के स्टोर में सिर्फ “श्वेत लोगों” के लिए आरक्षित काउंटर पर बैठकर शांतिपूर्ण विरोध किया, जिसका उद्देश्य नस्लीय भेदभाव को समाप्त करना था। यह विरोध तेजी से अन्य विश्वविद्यालयों में भी फैल गया। अमेरिका में श्वेत और अश्वेत लोगों के बीच जो नस्लीय दीवार खड़ी की गई थी, उसे गिराने में छात्रों के इस विरोध ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फ्रांस:
मई 1968 का प्रदर्शन: मई 1968 में फ्रांस सामाजिक अशांति के दौर से गुजर रहा था। उस समय पेरिस के छात्रों ने सोरबोन यूनिवर्सिटी पर कब्जा कर लिया, जो यूरोप की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटियों में से एक है। यह घटना देश में उथल-पुथल की प्रतीक बन गई। इस आंदोलन में 10 मिलियन लोगों ने हिस्सा लिया। उन्होंने लोकतांत्रिक और शैक्षिक सुधारों, सांस्कृतिक स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय और बेहतर कामकाजी परिस्थितियों की मांग की। इन प्रदर्शनों के प्रभाव ने सामाजिक और राजनीतिक स्वतंत्रताओं के मार्ग को प्रशस्त किया।
निष्कर्ष:
अगर इन सभीआंदोलनों को देखा जाए तो फिलिस्तीन के समर्थन में इज़रायल के ख़िलाफ़ होने वाला छात्र आंदोलन सबसे प्रमुख है। इस आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि, यह आंदोलन किसी जाति, धर्म या किसी देश के विरोध में नहीं था बल्कि यह आंदोलन, तानाशाही, ज़ुल्म, अत्याचार, अहंकार के ख़िलाफ़ और मज़लूमियत, इंसानियत और भाई चारे के समर्थन में था।
इस आंदोलन की दूसरी विशेषता यह थी कि, यह आंदोलन अमेरिकी छात्रों ने नेतन्याहू के आदेश पर इज़रायली सेना द्वारा ग़ाज़ावासियों के खुल्लम खुल्ला नरसंहार, नरसंहार के विरोध में शुरू किया था और धीरे धीरे यह आंदोलन पूरे यूरोप में फैल गया। यूरोप की लगभग सभी यूनिवर्सिटी में छात्रों ने फ़िलिस्तीनियों के क़त्ले आम के विरोध में आंदोलन शुरू कर दिया था। इस आंदोलन के कारण अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में बहुत से छात्रों की गिरागतारी भी हुई।
यूरोपीय छात्रों द्वारा फ़िलिस्तीन के समर्थन में होने वाला यह अब तक का सबसे बड़ा और सबसे ज़्यादा दिनों तक चलने वाला आंदोलन है। सूत्रों के अनुसार छुट्टी ख़त्म होने के बाद यूनिवर्सिटी दुबारा खुलने पर वहां के छात्रों ने फिर से इज़रायल के विरुद्ध प्रदर्शन शुरू कर दिया है। यह पहला अवसर है जब पूरा अरब इज़रायल की बर्बरता पर ख़ामोश हैं और यूरोपीय छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं
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