इज़रायल, ग़ाज़ा को रहने लायक़ नहीं छोड़ना चाहता: संयुक्त राष्ट्र

इज़रायल, ग़ाज़ा को रहने लायक़ नहीं छोड़ना चाहता: संयुक्त राष्ट्र

ग़ाज़ा में इज़रायली हमले रुकने का नाम नहीं ले रहे। लगातार बमबारी और हवाई हमलों ने सैकड़ों फिलिस्तीनियों की जान ले ली है, जिनमें बड़ी संख्या में मासूम बच्चे और महिलाएँ हैं। शहर की बस्तियाँ, अस्पताल, मस्जिदें और स्कूल खंडहर बन चुके हैं। हालात इतने बदतर हैं कि, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार कार्यालय को भी चेतावनी देनी पड़ी कि, अगर यह सिलसिला जारी रहा, तो ग़ाज़ा जल्द ही रहने लायक़ नहीं बचेगा।

लेकिन असली सवाल यही है कि, संयुक्त राष्ट्र और उसकी संस्थाएं केवल बयान क्यों देती हैं? बुधवार की शाम जारी बयान में संगठन ने फिर वही किया – अपील, चिंता और चेतावनी। अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी फ़ार्स ने बताया कि संयुक्त राष्ट्र के बयान में ग़ाज़ा शहर को इज़रायली हमलों की तेज़ी का गवाह बताया गया है और कहा गया है कि, पूरे मोहल्ले मिटाए जा रहे हैं। क़तरी चैनल अल-जज़ीरा ने भी संयुक्त राष्ट्र को उद्धृत करते हुए लिखा कि “अगर इज़रायल ने हमले नहीं रोके, तो ग़ाज़ा में इंसानों का जीना असंभव हो जाएगा।”

पिछले एक महीने में 270 से अधिक बड़े हमले दर्ज हुए हैं, जिनमें कम से कम 379 फ़िलिस्तीनी मारे गए। आंकड़े बताते हैं कि, हालात युद्ध से भी आगे जाकर नरसंहार की ओर बढ़ चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद न तो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने आपात बैठक में कोई ठोस प्रस्ताव पास किया, और न ही अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) ने इज़रायली नेतृत्व के खिलाफ़ कार्रवाई शुरू की।

विश्लेषकों का कहना है कि यह केवल इज़रायल की सैन्य ताक़त नहीं, बल्कि पश्चिमी देशों, ख़ासतौर पर अमेरिका और यूरोप का समर्थन है जो उसे खुली छूट दे रहा है। अमेरिका बार-बार सुरक्षा परिषद में वीटो का इस्तेमाल कर, हर उस प्रस्ताव को गिरा देता है जिसमें इज़रायल पर पाबंदियों या कार्रवाई की बात होती है। यही वजह है कि फ़िलिस्तीनी इलाक़ों में खून बहता है, लेकिन दुनिया “शांति” और “धैर्य” की अपील तक सीमित रहती है।

फ़िलिस्तीनी जनता और मानवाधिकार कार्यकर्ता लगातार कह रहे हैं कि अब शब्द नहीं, ठोस कदम चाहिए। ग़ाज़ा में दवाइयाँ और खाने-पीने का सामान खत्म हो रहा है। हज़ारों परिवार बिना छत और बिजली-पानी के सड़कों पर हैं। संयुक्त राष्ट्र के राहत संगठन UNRWA ने खुद स्वीकार किया है कि हालात मानवीय आपदा से कहीं आगे बढ़ चुके हैं।

इतिहास गवाह है कि संयुक्त राष्ट्र ने कई जगहों पर “अंतरराष्ट्रीय आपातकाल” घोषित करके कार्रवाई की है — चाहे वह कोसोवो हो, रवांडा हो या फिर लीबिया। लेकिन ग़ाज़ा के मामले में वही संगठन महज़ “अपील” और “निंदा” तक सिमट कर रह गया है। यही दोहरा रवैया फिलिस्तीनियों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है।

आख़िर कब तक ग़ाज़ा को मिटाने की इस सुनियोजित मुहिम को सिर्फ़ “संघर्ष” कहा जाएगा? और कब दुनिया यह मानेगी कि यह महज़ युद्ध नहीं बल्कि एक राष्ट्र को खत्म करने की कोशिश है?

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