ईरान में जुमे की नमाज़ बनी इंक़लाबी हुंकार, ख़ामेनेई को जनता का पूर्ण समर्थन
शुक्रवार, 20 जून 2025 — यह दिन केवल जुमे की नमाज़ का दिन नहीं था, बल्कि यह ईरानी अवाम के उस अटूट इरादे का प्रदर्शन था, जो न केवल अपनी सरज़मीन के लिए बल्कि मज़लूम फ़िलस्तीनियों के लिए भी धड़कता है। 20 जून 2025 को ईरान की जुमे की नमाज़, एक धार्मिक फ़र्ज़ से बढ़कर इंक़लाबी हुंकार बन गई। राजधानी तेहरान से लेकर मशहद, इस्फ़हान, तब्रीज़, किरमान और अहवाज़ तक लाखों की संख्या में लोगों ने मस्जिदों और इमाम बारगाहों का रुख किया और नमाज़ के बाद सड़कों पर उतरकर इंक़लाबी मार्च किया। नमाज़ के बाद जैसे ही लोग बाहर निकले, सड़कों पर नारों का समंदर उमड़ पड़ा:
“मर्ग़ बर इज़राइल!”
“हम सब ख़ामेनेई हैं!”
“लब्बैक या फ़िलस्तीन!”
यह सिर्फ़ विरोध नहीं था, यह एक भरोसा था जो ईरानी अवाम ने फिर से अपने सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह सैय्यद अली ख़ामेनेई पर जताया।
तेहरान यूनिवर्सिटी की मुख्य नमाज़गाह में जब आयतुल्लाह इमामी काशानी ने इमामत की, तो उनके पीछे लाखों लोग खड़े थे, जिनके चेहरों पर ईमान और इरादा दोनों साफ़ नज़र आ रहा था। उन्होंने अपने ख़ुतबे में कहा:
“हम न किसी पर ज़ुल्म करेंगे, न ज़ुल्म सहेंगे। इस्लामी उम्मत का अपमान करने वालों को ईरान कभी बख़्शेगा नहीं।”
नमाज़ के बाद जगह-जगह शांति मार्च और इज़राइल विरोधी प्रदर्शन हुए। युवा, बुज़ुर्ग, महिलाएं, छात्र, हर वर्ग ने हिस्सा लिया और यह साबित किया कि ईरान की सड़कों पर आज भी क्रांति की रूह जिंदा है। यह कोई सरकारी आयोजन नहीं था, यह दिलों की सच्ची पुकार थी। ईरानी अवाम ने यह स्पष्ट कर दिया कि उनका लहजा सिर्फ़ धार्मिक नहीं, बल्कि सियासी और इंसानी भी है।
यह प्रदर्शन केवल एक विरोध नहीं, एक पैग़ाम था दुनिया के लिए:
कि अगर तुम इज़राइल की बर्बरता पर चुप रहोगे, तो ईरान चुप नहीं रहेगा।
कि अगर फ़िलस्तीन के बच्चे रोएंगे, तो ईरान की मस्जिदों से तकबीर की आवाज़ उठेगी।
कि जो भी ज़ुल्म के खिलाफ खड़ा होगा, ईरान उसका साथी होगा, चाहे वो यमन हो, ग़ज़ा हो या बैतुल-मुक़द्दस।
ईरान की जनता ने यह साफ़ कर दिया है कि आयतुल्लाह ख़ामेनेई सिर्फ़ एक नेता नहीं, एक इमाम की तरह हैं, जिनका हर फैसला अवाम के दिल से निकलता है। कल जुमे की नमाज़ का सिर्फ़ एक सन्देश था कि, अगर ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठानी है, तो उसका सबसे मुकम्मल तरीका है इमानी एकता और इरादा। आज की यह अवामी लहर साबित करती है कि ईरान में न केवल सरकार बल्कि अवाम भी पूरी तरह इज़राइल के अपराधों के खिलाफ मोर्चाबंद है, और आयतुल्लाह ख़ामेनेई के हर फैसले में शरीक है। ईरान की जुमे की नमाज़ एक बार फिर इंक़लाब की नमाज़ बन गई।
21वीं सदी के इस दौर में जब दुनिया तथाकथित मानवाधिकार और लोकतंत्र की बातें करती है, कुछ देश ऐसे भी हैं जो ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होकर न सिर्फ़ आवाज़ उठाते हैं बल्कि मज़लूमों के लिए अपनी जान तक क़ुर्बान करने को तैयार रहते हैं। ऐसे ही मुल्कों में सबसे आगे है — ईरान। और उसके सामने खड़ा है एक ऐसा ज़ायोनी सत्ता तंत्र, इज़राइल, जो दशकों से फ़िलिस्तीन की सरज़मीन पर ख़ून की नदी बहा रहा है। आज जब दुनिया का बड़ा हिस्सा मौन है, समझौता कर चुका है, तब ईरान अकेला मुल्क है जो बेबाकी से कह रहा है: “लब्बैक या फ़िलिस्तीन !” यह नारा ईरानी जनता के जज़्बे, हिम्मत और उस विचारधारा का दस्तावेज़ है, जो इज़राइल की बर्बरता के खिलाफ निडरता से खड़ी है।
इज़राइल की स्थापना ही फसाद और ज़ुल्म पर हुई। 1948 से अब तक इस ज़ायोनी शासन ने फ़िलस्तीनियों को उनके घरों से बेदखल किया, उनकी ज़मीनें छीनीं, बच्चों को मार डाला और मस्जिदों को अपवित्र किया। ग़ाज़ा की नाकाबंदी, वेस्ट बैंक में बस्तियों का विस्तार, और हर दिन होने वाले सैन्य हमले, यह सब इज़राइली अपराध का हिस्सा हैं। अब जब फ़िलस्तीन के मासूम बच्चे, औरतें और बूढ़े हर दिन शहीद हो रहे हैं, तब अमेरिका, यूरोप और अरब देश खामोश हैं। पर ईरान है जो हर मंच पर, हर मजलिस में, हर जुमे की नमाज़ में इस ज़ुल्म को बेनकाब कर रहा है।
आज की इस लड़ाई में अगर कोई सच्चा नेता सामने है तो वह हैं आयतुल्लाह सैय्यद अली ख़ामेनेई। वह सिर्फ़ ईरान के नेता नहीं, बल्कि हर न्याय प्रिय लोगों के लिए एक आइडियल बन चुके हैं, एक आवाज़ हैं, न उनका एक ही बयान है कि, अगर तुम चुप रहोगे, तो ज़ालिम और बढ़ेगा। उनका कहना है, “जो ज़ुल्म के खिलाफ खड़ा नहीं होता, वह ज़ुल्म का हिस्सा बन जाता है। उनके नेतृत्व में ईरान ने दुनिया को दिखाया है कि कैसे मज़बूत ईमान, सच्चा नेतृत्व और अवाम का इरादा मिलकर बड़े से बड़े तानाशाह और ज़ालिम सत्ता को घुटनों पर ला सकता है। ईरान में हर शुक्रवार को जो नमाज़ अदा होती है, वह केवल सजदे और दुआओं की महफ़िल नहीं, बल्कि इंक़लाब का मंच होती है। हर हफ़्ते लाखों लोग मस्जिदों में जुटते हैं, इमाम के ख़ुतबे सुनते हैं और फिर सड़कों पर उतरकर इज़राइल और अमेरिका के खिलाफ नारे लगाते हैं। यह वो सिलसिला है जो 1979 की इस्लामी क्रांति के वक्त शुरू हुआ था और आज भी जिंदा है।
यह ईरान बनाम इज़राइल की लड़ाई नहीं
यह जंग किसी ज़मीन की नहीं है। यह जंग इस बात की है कि कौन इंसाफ़ के साथ है और कौन फरेब के। एक तरफ़ ईरान है, मज़लूमों की आवाज़, और दूसरी तरफ़ इज़राइल, हथियारों का सरताज, पर इंसानियत का दुश्मन। ईरान हर मिसाइल हमला नहीं करता, लेकिन जब करता है तो उसका मक़सद सिर्फ़ बदला नहीं, बल्कि सबक होता है। वह दुश्मन को बताता है कि अगर तुमने हमारे मज़लूम भाइयों पर हमला किया, तो तुम्हें उसकी भारी कीमत चुकानी होगी।
ईरान: फ़िलस्तीन का सबसे सच्चा साथी
ईरान कभी फ़िलस्तीन को भूला नहीं। न राजनीतिक रूप से, न सैन्य रूप से, न धार्मिक रूप से। चाहे वह हिज़्बुल्लाह का समर्थन हो, चाहे हमास की मज़बूती या इस्लामी जिहाद की सहायता, ईरान हर मोर्चे पर मज़लूमों के साथ खड़ा है। यह वह मुल्क है जिसने अमेरिका की तमाम धमकियों, प्रतिबंधों और ब्लॉकड में रहते हुए भी कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया। ईरानी नेताओं का यह बयान आज भी ज़िंदा है:
“हम इज़राइल को एक कैंसर मानते हैं जिसे इस्लामी दुनिया से मिटाना ही होगा।” यह बयान सिर्फ़ एक नारा नहीं, एक रणनीतिक इरादा है, जो धीरे-धीरे अमल में तब्दील हो रहा है।
ग़ाज़ा इस समय एक खुली कब्रगाह बन चुकी है। इज़राइली हमलों ने वहां ज़िंदगी को रौंद डाला है। अस्पतालों पर बम गिरे, मस्जिदें मलबा बन गईं, स्कूलों की दीवारें खून से रंगीं, और राहत केंद्रों को निशाना बनाया गया। सिर्फ़ पिछले कुछ महीनों में ही हज़ारों फ़िलस्तीनी नागरिक, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चे शामिल हैं, शहीद हो चुके हैं। यह कोई जंग नहीं, बल्कि सुनियोजित नरसंहार है, जिसे दुनिया की आँखों के सामने अंजाम दिया जा रहा है और तथाकथित मानवाधिकार संगठन खामोश हैं। बिजली, पानी, दवाइयाँ, सब बंद। लोगों को न जीने का हक़ मिल रहा है, न मरने की इज़्ज़त। इज़राइल ने सिर्फ़ फ़िलस्तीनी मकानों को नहीं गिराया, उसने उम्मीदें, बचपन और इंसानियत को मलबे में बदल दिया है। हर विस्फोट के बाद सिर्फ़ इमारतें नहीं गिरतीं, माँ की गोद सूनी होती है, बच्चे अनाथ होते हैं, और पूरा इलाका खौफ़ में डूब जाता है।
ग़ाज़ा के इस नरसंहार को “आत्मरक्षा” कहना, इतिहास का सबसे बड़ा झूठ है। यह एक उपनिवेशवादी मानसिकता का विस्तार है जो फ़िलस्तीनियों को मिटा देना चाहती है। और यही वह बर्बरता है, जिसके खिलाफ ईरान खड़ा है। वही आवाज़ बन रहा है उन मज़लूमों की, जिनकी चीख़ें संयुक्त राष्ट्र के दीवारों से टकराकर लौट जाती हैं। इज़राइल ने ईरान को ग़ाज़ा पट्टी समझने की भूल कर दी है जिसका उसे खामियाज़ा हर हाल में भुगतना होगा। नेतन्याहू ने जो ग़ाज़ा मि किया, जो यमन में किया, वही वह ईरान में करना चाहते थे, लेकिन ईरान ने जो पलटवार किया है उससे उन्हें इस बात का अंदाजा हो गया होगा कि यह उनकी इतिहास कि सबसे बड़ी भूल है।


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