क्या इस्राईल की क्रूरता अरब जगत में नई क्रांति लाएगी?

क्या इस्राईल की क्रूरता अरब जगत में नई क्रांति लाएगी?

इस्राईल की ज़ायोनी सरकार ने रमज़ान के पवित्र महीने में अल-अक़्सा मस्जिद में इबादत के लिए जमा हुए नमाज़ियों पर जो बर्बरता दिखाई है, उससे यह ख़तरा पैदा हो गया है कि पूरे इलाक़े में एक नई जंग छिड़ सकती है. हमेशा की तरह इस बार भी फ़िलिस्तीनियों पर चौतरफा आक्रमण जारी है।

एक ओर इसराइली सेना और ज़ायोनी बाशिंदों ने मिलकर अल-अक्सा मस्जिद में फ़िलिस्तीनी नमाज़ियों पर हमला किया और उन्हें घायल कर मस्जिद से बाहर खदेड़ दिया।दूसरी ओर उन्होंने गाजा और दक्षिण लेबनान पर बमबारी करके अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया। राजनीति और सत्ता के क्षेत्र में निरंकुश सत्ता और भौतिक बल ही वे मानदंड बन रहे हैं जिनसे लोगों को नियंत्रित किया जाता है और उन्हें अपने पैरों तले रौंदने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

इस्राइल की सोच बिल्कुल सभी दमनकारी शासकों की तरह ही है कि जैसे-जैसे उनकी यांत्रिक शक्ति और भौतिक शक्ति बढ़ती है, वे अधिक क्रूर और दमनकारी होते जाते हैं और वे इस तथ्य से पूरी तरह अनजान होते हैं कि उनके आलावा भी एक ऐसी शक्ति जो यांत्रिक शक्ति और भौतिक श्रेष्ठता से कहीं अधिक शक्तिशाली है।

यह शक्ति वह है जो लोगों के दिलों में क्रोध की आग के रूप में जलती है और जब यह प्रज्वलित तूफान के रूप में भड़कती है, तो यह एक क्षण में क्रूरता के महलों को नष्ट कर देती है।कुछ ऐसा ही मामला इस वक़्त अरब जगत के लोगों और इस्राइल की क्रूरता के बीच चल रहा है। इस्राइल की वर्तमान सरकार ने यह ग़लतफ़हमी पाल रखी है कि अरब दुनिया के शासकअपमान और कमजोरी के उस दर्जे पर हैं कि वे इजराइल से भिड़ना तो दूर उसके विरुद्ध स्पष्ट शब्दों में कोई आलोचनात्मक बयान भी नहीं दे सकते।

इसके विपरीत वह अमेरिका से अपनी निकटता बढ़ाने के लिए हमेशा इस्राईल के साथ अपने संबंध सुधारने की कोशिश करेंगे। क्योंकि अरब जगत के निरंकुश शासक इस बात से वाकिफ हैं कि अमेरिका तक पहुंचने का रास्ता इस्राईल के साथ अपमानजनक ‘दोस्ती’ से होकर गुज़रता है। और जब तक इस्राईल इस क्षेत्र में अमेरिकी हितों की रक्षा का दायित्व निभा रहा है, तब तक अमेरिका को फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ इसराइली क्रूरता पर प्रतिबंध लगाने की ज़रूरत कभी महसूस नहीं होगी।

पश्चिमी मीडिया का भी यही हाल है, जिसने हमेशा इस्राईल के अत्याचारों और उसके क्रूर चरित्र को कवर किया है और फिलिस्तीनी लोगों को दोषी ठहराया है। इस्राईल के आतंकवाद को उजागर करने और हत्या और विनाश के अपराधियों को न्याय दिलाने में मदद करने के बजाय, पश्चिमी मीडिया ने इन फिलिस्तीनियों को कठघरे में खड़ा कर दिया है। जिन्होंने अपनी जमीन, अपना घर और अपनी इज्जत बचाने के लिए इस्राईल के सबसे घातक हथियारों का पत्थरों और विरोध प्रदर्शनों से मुकाबला किया है। इस स्थिति ने अरब जगत के लोगों में एक अजीब सी बेचैनी का माहौल पैदा कर दिया है।

अब जब मामला अल-अक्सा मस्जिद के अंदर नमाजियों पर हमले और पहले क़िबला की बेअदबी तक पहुंच गया है, तो यह चिंता बढ़ रही है। एक ओर वे अल-अक्सा मस्जिद में नमाजियों पर हो रहे अत्याचारों को देख रहे हैं, तो दूसरी ओर वे पश्चिमी देशों में इस्लामी पवित्र स्थलों की अपवित्रता को भी दिन-रात देख रहे हैं।

साथ ही वे अपने देशों के शासकों की चुप्पी और इस्लामी रीति-रिवाजों के प्रति उनकी उदासीनता से वाकिफ हैं।लेकिन कुछ बोल नहीं रहे हैं या विरोध नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अरब दुनिया की सत्तावादी व्यवस्था उन्हें कुचल देगी और उनकी आवाज को दबा देगी।

लेकिन उनके दिलों में सुलग रही गुस्से की आग से यह प्रतीत हो रहा है कि वे ज़्यादा देर तक चुप नहीं रहेंगे और उनकी प्रतिक्रिया इस बार धरना-प्रदर्शनों तक ही सीमित नहीं रहेगी। क्या होगा यह कहना मुश्किल है, लेकिन अगर उनका गुस्सा फूट पड़ा तो स्थिति को संभालना मुश्किल हो जाएगा।

भौतिकवादी विश्लेषकों को यह बात बेतुकी लग सकती है, लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य उस दिशा में इशारा करते हैं और संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है। 18वीं सदी की क्रांति जब फ्रांस में आई थी, तब भी कोई यह भविष्यवाणी नहीं कर सकता था कि ऐसा होगा कि सत्ता पर बैठे लोग गाजर और मूली की तरह काट दिए जाएंगे। फ्रांस के साथ उस उस वक़्त भी यही हुआ जब अल्जीरिया के लोगों ने फ्रांसीसी साम्राज्यवाद को हर कीमत पर उखाड़ फेंकने का फैसला किया। हालाँकि अल्जीरिया के लोगों को इसकी बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी।

15 मिलियन से अधिक लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी,लेकिन उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया और अंततः डी गॉल, जो उस समय फ्रांस का शासक था,उसकी पूरी,वीरता और बुद्धिमता मिट्टी में मिल गई। उसने 1962 में अल्जीरिया की स्वतंत्रता की घोषणा की क्योंकि उसे डर था कि अगर उन्होंने अल्जीरिया को अपने नियंत्रण में रखने पर जोर दिया तो फ्रांस का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। अफगानिस्तान की ताज़ा घटना है, जहां अमेरिका के नेतृत्व वाली नाटो सेना को अपमान झेलते हुए भागना पड़ा और रातोंरात अपने ठिकानों को खाली करना पड़ा।

इससे पहले सोवियत संघ का भी अफगानिस्तान में यही हश्र हुआ था। यूक्रेन के खिलाफ चल रहे रूसी आक्रमण से भी यही सबक सीखा जा सकता है, जहां यूक्रेन के लोग और नेतृत्व के कारण अब तक रूस अपने लक्ष्यों को हासिल करने में नाकाम रहा हैं ,जबकि रूस को लगा था कि वह एक हफ्ते में यूक्रेन पर रूस की जीत का झंडा फहरा देगा।

इन घटनाओं से पता चलता है कि मशीनरी शक्ति की एक सीमा होती है और हमेशा उद्देश्यों को प्राप्त करने में प्रभावी नहीं हो सकती। आज फ़िलिस्तीनी सैनिकों के साहस और शौर्य और अल-अक़्सा मस्जिद की पवित्रता की रक्षा के लिए इस्राईल की गोलियों का सीना ठोंक कर विरोध करने के लिए पूरी दुनिया के मुसलमान उनके क़र्ज़दार हैं। इन घटनाओं का जो प्रभाव मुस्लिम दुनिया के आम ,ख़ास लोगों पर पड़ा है वह अविश्वसनीय और प्रेरणास्रोत है!

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