बिहार के चुनावी दंगल में मुस्लिम वोटर कहां खड़ा है?
बिहार में चुनाव का माहौल पूरी तरह तैयार है। यहां असली मुकाबला एनडीए और इंडिया गठबंधन (महागठबंधन) के बीच है। इंडिया गठबंधन, जिसे “महागठबंधन” कहा जा रहा है, में सात पार्टियाँ शामिल हैं। इस गठबंधन की ज़्यादातर उम्मीदें मुस्लिम मतदाताओं पर टिकी हैं, जो राज्य के लगभग 13 करोड़ वोटरों में करीब 18 प्रतिशत हैं। आम तौर पर यह माना जाता है कि बिहार का वोटर बाकी राज्यों की तुलना में ज़्यादा समझदार और जागरूक होता है और वह अपना वोट व्यर्थ नहीं जाने देता।
“इंडिया गठबंधन” की ओर से इस बार चुनाव में तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया गया है और उनके साथ मल्लाह समाज के मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री के रूप में पेश किया गया है। यहीं से मुस्लिम हलकों में यह चर्चा शुरू हो गई कि, जब केवल 2-3 प्रतिशत वोट वाले मल्लाह समुदाय के नेता को उपमुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया जा सकता है, तो फिर 18 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने वाले किसी मुसलमान को यह पद क्यों नहीं दिया जा सकता। बात यहीं नहीं रुकी, बल्कि अब यह मांग मुस्लिम मुख्यमंत्री तक पहुँच गई है।
एआईएमआईएम (मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन) के अध्यक्ष बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी ने बिहार में अपनी पार्टी की चुनावी मुहिम शुरू करते हुए सवाल उठाया कि “राज्य में मुस्लिम मुख्यमंत्री क्यों नहीं हो सकता, जबकि आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 17 प्रतिशत है?” ओवैसी ने मुसलमानों के साथ हो रहे बुरे व्यवहार के लिए सत्ताधारी एनडीए और विपक्षी इंडिया गठबंधन, दोनों को जिम्मेदार ठहराया।
मजलिस इस बार बिहार की 32 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे 5 सीटों पर सफलता मिली थी — जो तेलंगाना के बाहर उसकी सबसे बड़ी जीत थी। हालांकि, बाद में उसके चार विधायक बगावत कर राजद में शामिल हो गए थे। उस समय ऐसा लगा था कि शायद ओवैसी अब बिहार नहीं लौटेंगे, लेकिन अब वे पहले से ज्यादा जोश के साथ चुनाव मैदान में हैं। पिछले हफ्ते ओवैसी ने गोपालगंज से अपनी रैली की शुरुआत की और फिर से वही सवाल दोहराया — “बिहार में मुस्लिम मुख्यमंत्री क्यों नहीं हो सकता?”
उन्होंने कहा कि, जिन पार्टियों को तीन प्रतिशत आबादी वाले समुदाय के नेता को उपमुख्यमंत्री बनाने में दिक्कत नहीं है, उन्हें 17 प्रतिशत मुस्लिम आबादी की भागीदारी देने में क्या समस्या है। उन्होंने इंडिया गठबंधन के मुकेश सहनी (विकासशील इंसान पार्टी के प्रमुख) का उदाहरण दिया और कहा कि कांग्रेस, राजद और सपा जैसी पार्टियाँ मुसलमानों के वोट तो चाहती हैं, लेकिन उन्हें सत्ता में उचित हिस्सा नहीं देतीं। वे बस भाजपा का डर दिखाकर मुसलमानों से वोट लेती हैं, जबकि भाजपा को रोकने में खुद नाकाम रही हैं। उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है कि इन पार्टियों के झूठ को उजागर किया जाए और मुसलमान अपनी खुद की नेतृत्व तैयार करें।
इस समय इंडिया गठबंधन के लिए किसी मुसलमान को उपमुख्यमंत्री बनाना मजबूरी बन गया है, क्योंकि यह मुद्दा गंभीर हो गया है। यही कारण है कि बिहार कांग्रेस के प्रभारी कृष्णा एलावरू ने संकेत दिया कि “महागठबंधन की सरकार में कांग्रेस की तरफ से दूसरा उपमुख्यमंत्री मुसलमान हो सकता है।” इस बयान से यह साफ झलकता है कि, गठबंधन को अब एहसास हो गया है कि मुसलमानों की अनदेखी उन्हें भारी पड़ सकती है। अगर वोटिंग के वक्त मुस्लिम मतदाता असमंजस में पड़ गए, तो इसका बड़ा नुकसान महागठबंधन को होगा। हालांकि आम धारणा यही है कि, बिहार में ज्यादातर मुस्लिम वोट राजद को मिलेंगे।
ऐसा नहीं है कि, बिहार में कभी मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं हुआ। जो लोग पुरानी राजनीति याद रखते हैं, वे जानते हैं कि चाचा अब्दुल ग़फूर 1973 से 1975 तक कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे। बिहार ही नहीं, असम में अनवरा तैमूर भी कांग्रेस की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य में, जहाँ मुस्लिम आबादी 10 प्रतिशत से भी कम है, अब्दुल रहमान अंतुले को मुख्यमंत्री बनाया गया था — वे इंदिरा गांधी के बेहद भरोसेमंद नेता थे। लेकिन आज के हालात में, जब मुसलमानों को राजनीतिक रूप से हाशिए पर धकेल दिया गया है, कश्मीर को छोड़कर किसी भी राज्य में मुस्लिम मुख्यमंत्री की बात करना जोखिम भरा माना जाता है।
पहले ऐसा होता था कि “सेक्युलर” राजनीति में किसी मुसलमान नेता को मंच पर रखना एक राजनीतिक ज़रूरत मानी जाती थी। लेकिन यह भी वास्तविकता है कि, सेक्युलर पार्टियों के लिए भी मुसलमान “अछूत” जैसे बन गए हैं। ये पार्टियाँ मुसलमानों के वोट तो चाहती हैं, पर उन्हें सत्ता में हिस्सा नहीं देना चाहतीं। उनका मानना है कि मुसलमान भाजपा से डरकर उन्हें वोट दे ही देगा।
बिहार में मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग नई नहीं है। लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक राम विलास पासवान ने सबसे पहले यह मुद्दा उठाया था। उनके बेटे चिराग पासवान ने हाल ही में कहा, “मेरे पिता ने किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाने के लिए अपनी पार्टी तक कुर्बान कर दी थी, लेकिन मुसलमानों ने उनका साथ नहीं दिया।” उन्होंने राजद पर आरोप लगाया कि वह 2005 में भी मुस्लिम मुख्यमंत्री के लिए तैयार नहीं थी। चिराग ने कहा, “अगर मुसलमान सिर्फ वोट बैंक बने रहेंगे, तो उन्हें न इज़्ज़त मिलेगी न सत्ता में भागीदारी।”
राजद बिहार में मुस्लिम वोटों की सबसे बड़ी दावेदार पार्टी है और वह इस वक्त चुनाव के ठीक पहले किसी विवाद को जन्म नहीं देना चाहती। राजद के लिए मुस्लिम उपमुख्यमंत्री का नाम आगे लाना जोखिम भरा है, क्योंकि पार्टी में नए और पुराने मुस्लिम नेता बहुत हैं — और ये सभी अपनी-अपनी जातीय पहचान में बँटे हुए हैं। अगर किसी एक तबके के मुसलमान नेता को आगे किया गया, तो दूसरा तबका नाराज़ हो जाएगा। इसलिए राजद इस जोखिम से बचना चाहता है।
फिलहाल, भाजपा को छोड़कर लगभग सभी “सेक्युलर” और “नाम के सेक्युलर” दलों ने मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। सबको उम्मीद है कि मुसलमान उन्हें वोट देंगे। आगामी 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में होने वाले चुनाव में राजद ने अपने 143 उम्मीदवारों में से 18 मुसलमान उतारे हैं, कांग्रेस ने 10, जेडीयू ने 4, और चिराग पासवान की पार्टी ने 29 में से केवल 1 (मोहम्मद कलीमुद्दीन, बहादुरगंज से) टिकट दिया है। अब देखना यह है कि इनमें से कितने मुसलमान जीतकर विधानसभा में पहुँचते हैं।
2020 के चुनाव में 24 मुस्लिम उम्मीदवार जीत पाए थे। बिहार में लगभग 50 सीटें ऐसी हैं जहाँ मुसलमान हार-जीत तय करते हैं। इनमें से ज़्यादातर सिमांचल इलाके में हैं, और सभी पार्टियाँ वहाँ मुस्लिम वोट पाने के लिए हरसंभव कोशिश कर रही हैं।


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