मध्यप्रदेश, नफ़रतों के तंदूर से दहक रहा है खरगोन
“मध्यप्रदेश का खरगोन नफ़रतों के तंदूर से दहक रहा है। मैं कुछ नहीं जानता, पत्थर किसने चलाए, मस्जिद किसने जलाई, मंदिर किसने तोड़ा।
मैं इतना जानता हूँ यह शहर बेहद गरीब लोगों का शहर है। इस शहर से मेरे दादा 55 वर्ष पूर्व पांच बच्चे, एक बीमार बीवी और एक अटैची लेकर विभाजन की त्रासदी को झेलने के बाद इंदौर आए थे। उनके धर्म क्या है मुझे नहीं पता लेकिन यह पता है उन्हें रोटियां मुश्किल से नसीब होती है। मध्यप्रदेश का खरगोन और बुराहनपुर, यह दोनों शहर अत्यंत दरिद्र है। विशेषकर यहां के मुसलमान और आदिवासी बेहद गरीब है।
धर्म से उपजी नफरत नाम का भूत वहां तांडव कर रहा है, सरकारे भी सत्ता के लोभ में अंधी हो चुकी है। धर्म जब संगठन का रूप धर लेता है तब वह इंसानों में झगड़े डाल देता है। इसलिए मैं धर्म के संगठन बनाने का पुरज़ोर विरोध करता हूँ।
मैं एक ज़माने तक सांप्रदायिकता के विरुद्ध अपनी कलम बुलंद करता रहा हूँ। इसके लिए मैंने हिंदुओ और मुसलमानों दोनों से झगड़े लिए। मैं मुसलमानों से कहता था तुम हिंदुओ के साथ सांस्कृतिक रूप से मिलकर रहो तब मुसलमान मुझे काफ़िर कहते थे, मैं हिंदुओ से कहता था- मुसलमान तुम्हारा देश नहीं हड़पेंगे, उन्होंने आठ सौ साल की हुकूमत में नहीं हड़पा तब अब क्या हड़पेंगे, तब उस तरफ के कट्टरपंथी मुझे देशद्रोही कहते थे।
मैं सुडो सेकुलरिज्म के खिलाफ शुरू से रहा हूँ। धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा मेरे समक्ष यह नहीं है कि तुम राजनीतिक दलों में धर्मनिरपेक्षता तलाशते फ़िरो और अपनी ज़िंदगी को कट्टरपंथ की अग्नि में झोंक रखो।
मेरा ऐसा मानना था कि इस देश में हिन्दू और मुस्लिम तब ही साथ साथ रह सकते है जब वह सांस्कृतिक रूप से एक जैसे हो जाए। क्योंकि झगड़ा संस्कृति का है धर्म का नहीं है।
एक दफा मेरे एक आलेख को पढ़कर शायर निदा फ़ाज़ली ने मुझसे संपर्क किया और कहा कि तुम्हारी रोशनाई ज़ाया जाएगी क्योंकि दुनिया बुरे ख्यालों से चलती है, मेरी उम्र इस लड़ाई में बीत गई बाबू।
आखिर मेरी भी हिम्मत हार ही गई। मैं यह मान चुका था कि जब मैं कुछ नहीं कर सकता तब शब्द भी ज़ाया क्यों करूँ? फिर मैं अपने साथ के उन लोगों की तरह हो गया जो सुबह शाम कचहरी में मुकदमे लड़ते हैं और अपने घर चले जाते हैं। वह हर नफरत को हर ज़हर को सिर्फ देखते रहते हैं। दिनकर ने उन्हें भी अपराधी कहा है।
मैं तो यह भी मान चुका था कि अब तो सारे विश्व में ही धर्म के नाम पर बने संगठनों का ज़हर फेल गया है, अब इस नक्कारखाने में अपन जैसी तूती से कुछ नहीं होना। लोग धर्म के अंधे हो गए। अब हर बहुसंख्यक आबादी देश को हथियाना चाहती है, अब देश अल्पसंख्यक विहीन हो जाएगा। अब गुलदस्ते टूट जाएंगे। सारे विश्व पर ही कुछ ऐसा ही खाका खिंच चुका है। अब सारे विश्व में धर्मनिरपेक्षता का पैरोकार कोई नहीं बचा, अब केवल धर्म बच गए हैं और वह धर्म अराजक ज़हरीले लोगो के हाथ में है।
अब मैं झगड़ो में नहीं पड़ता हूँ क्योंकि जानता हूँ आदमी है एक दिन सुधर ही जाएगा। विज्ञान की रोशनी कभी न कभी तो अंधकार के पर्दे हटा ही देगी। जितने मरना है वह तो मर ही जाएंगे।
बहरहाल जिस दिन खरगोन में पत्थर चल रहे थे उस ही दिन एक दोस्त अशफ़ाक़ को पैरों का ऑपरेशन करवाना था, रुपए पैसे का इंतज़ाम नहीं था। मुझ तक खबर आयी, मैंने अपनी दोस्त श्रुति अग्रवाल को कहा, श्रुति ने अपने आर्थोपेडिक सर्जन पति सर राजीव हिंगोरानी से अशफ़ाक़ का ऑपरेशन करवा दिया। राजीव जी ने चार दफ़ा अशफ़ाक़ का खैर पूछा। अशफ़ाक़ और राजीव जी दोनों के बीच से धर्म गायब था, उन्होंने यह नहीं कहा कि दंगा चल रहा है और मैं इस विधर्मी की किसी तरह की मदद नहीं करूंगा। उन्होंने मुझसे कहा- जिनकी गाड़ी अल्लाह भरोसे चल रही हो उन्हें यहां भेज दिया करो क्योंकि जिनकी गाड़ी भगवान भरोसे चलती है उनसे नहीं उलझना शादाब भाई।
वह मेरी मदद कर सकते थे लेकिन उन्होंने अशफाक की मदद की, वह भी एक अंजान मुसलमान। यही मोहब्बत है और इंसानियत जो धर्म के नाम पर उपजे ज़हर को ज़ेर कर देती है। एक तरफ पत्थर चल रहे थे दूसरी तरफ कोई जान बचा रहा था। कहने को तो एक डॉक्टर का फर्ज है लेकिन डॉक्टर के भीतर भी तो आदमी है और आदमी का धर्म है और धर्म शैतान बनाने में थोड़ी सी भी देर नहीं करता है।
बुझी हुई राख में थोड़ी सी चिंगारियां है जो इंसानियत को थामे हुए है। अनंतः एक दिन सारे लोग धर्म के नाम पर लड़कर सारी पृथ्वी को नष्ट कर देंगे, फिर बना लेना आसमानों में अपने अपने धर्मो के देश। अब तक धर्मो के झगड़े तो हुए लेकिन पृथ्वी नष्ट नहीं हुई लेकिन अब तो हथियार तैयार है, अब ज़मीन के हर खित्ते में परमाणु तैयार है।”
शादाब सलीम की कलम से …