लुलु मॉल, विकास और विनाश!
जब भी मैं सरकारी और अर्ध-सरकारी कार्यालय और पुलिस थानों में जाता हूं, तो देवी – देवताओं के चित्र और मालाओं को देखकर मुझे आश्चर्य नहीं होता। बुरा भी नहीं लगता। मैं जानता हूं कि धर्मनिरपेक्ष देश में सरकारी दफ्तरों में सेक्युलर संविधान के तहत देवी-देवताओं की तस्वीरें या मूर्तियां रखना मना है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि किसी को अपने कार्यस्थल पर जबरन तस्वीरें या मूर्ति लगाने से रोका जाए, और रोका भी नहीं जाता।
कहा जाता है कि ऐसा करने से धार्मिक भावनाएं आहत होती हैं। और कोई किसी के धार्मिक मामलों में दखल देकर उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता। इसलिए, इस देश में सरकारी, अर्ध-सरकारी कार्यालय और पुलिस थानों में धार्मिक कृत्यों की आमतौर पर उपेक्षा की जाती है। और आज से नहीं बल्कि आजादी के बाद से यही चलन है। बल्कि सच तो यह है कि सरकारी परियोजनाओं की शुरुआत ही ‘पूजा’ से होती है, और सरकारी भवनों और सरकारी कारखानों आदि में छोटे-छोटे मंदिर होते हैं।
मुसलमानों ने कभी इसका विरोध नहीं किया और न ही किसी को सार्वजनिक स्थानों पर पूजा करने से रोका। मुसलमानों को भी कई जगहों पर इबादत करने की आज़ादी है, मुझे अच्छी तरह याद है कि मुंबई के मंत्रालय में नियमित रूप से सामूहिक नमाज़ अदा की जाती थी। आज भी छत्रपति शिवाजी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर नमाज़ के लिए एक कमरा मौजूद है।
लेकिन अब जब से कुछ सियासी दलों ने ‘धार्मिक नफरत’ तेज कर दी है, ऐसी सूरत में वह ‘नमाज’ जो सार्वजनिक जगहों पर पढ़ी जाती है, एक खास ज़हरीली और नफ़रती मानसिकता वालों को जिन्हें कुछ लोग भगवाधारी कहते हैं ज़हर लगने लगी। ऐसा ही कुछ लखनऊ के ‘लुलु मॉल‘ में हुआ है।
कुछ लोगों ने मॉल’ में सामूहिक नमाज अदा की, लेकिन नफरत से भरे लोगों ने हंगामा शुरू कर दिया। माना कि इस नफ़रत के माहौल में जब कुछ अराजक तत्व साम्प्रदायिकता फैला रहे हैं ? नमाज अदा करने वालों को मस्जिद में जाना चाहिए था,और नमाज़ पढ़ने वाले कौन थे?
एक मिनट से कम समय में उन्होंने नमाज़ कैसे अदा कर दी ? वीडियो किसने बनाया ? वीडियो बनाकर वायरल क्यों किया गया ? ये वो प्रश्न हैं जिनका जवाब आना बाक़ी है।
क्योंकि सीसी टीवी से पता चला है कि नमाज़ पढ़ने वाले मुसलमान नहीं थे लेकिन अगर मान लिया जाए कि वह मुसलमान थे और किसी कारण वह मस्जिद तक नहीं पहुंच पाए और उन्होंने ‘मॉल’ में ही नमाज अदा पढ़ ली, तो इस पर इतना हंगामा करने का कोई मतलब नहीं था। नमाज अदा करने वालों को समझाया जा सकता था कि भविष्य में वह ‘मॉल’ के अंदर नमाज़ नहीं पढ़े। बल्कि मैं तो कहना चाहूंगा कि आज के हालात में नमाज़ पढ़ने वाले हर मुसलमान को कोशिश करनी चाहिए कि वह मस्जिद में नमाज़ पढ़े न कि सार्वजनिक स्थान पर।
और फिर ऐसा भी नहीं है कि हंगामा करने के बाद नमाज़ पढ़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई, कार्रवाई की गई, लुलु मॉल के प्रबंधन ने खुद एफआईआर दर्ज कराई, उसके बाद कोई हंगामा नहीं होना चाहिए था। लेकिन हंगामा हुआ और लुलुमाल के बाहर ‘जय श्री राम’ के नारे लगे, हनुमान चालीसा का उच्चारण किया गया और पूरे मामले को बहुत ही सोची, समझी और घृणित साज़िश के साथ धार्मिक रंग दिया गया।
‘लुलुमॉल’ के मालिक यूसुफ अली एमए, एक अरबपति भारतीय हैं, अबू धाबी में रहते हैं, और उनके ‘मॉल’ पूरी दुनिया में खुले हैं। यह मॉल रोज़गार के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं , लोगों को इस ‘मॉल’ में नौकरी मिल रही है ‘ और टैक्स यहां से सरकारी खजाने में जा रहे हैं। यह देश के विकास में एक मुस्लिम अरबपति का योगदान है। उन्होंने कई देशों में कई ‘मॉल’और फैक्ट्रियां खोली हैं। क्या इस तरह की धार्मिक उथल-पुथल भविष्य में एक मुस्लिम अरबपति को इस देश में निवेश करने के लिए राजी कर पाएगी? नहीं, ये नफ़रत ,फ़साद झगड़ा देश के विकास में रोड़ा बनेगा।
अफ़सोस जिस देश के लोगों की प्रगति ‘विकास’ में है, वे ‘विनाश’ के चक्र में फंस गए हैं। अभी भी वक़्त है, हम संभल सकते हैं, हम नफ़रत की जगह प्यार मोहब्बत से रह सकते हैं अगर हम सच्चे देशभक्त हैं, अगर हम सच्चे भारतीय हैं।


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