मुहर्रम क्या है और इसे क्यों मनाया जाता है?
यूँ तो मुहर्रम इस्लामी साल का पहला महीना है जो चाँद के हिसाब से चलता है, जिसे हिजरी साल भी कहते हैं। लेकिन आज मुहर्रम सिर्फ़ एक महीने का नाम नहीं रह गया है बल्कि आज मुहर्रम नाम है एक इंक़ेलाब,का, मुहर्रम नाम है ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आंदोलन का, मुहर्रम नाम है नफ़रत के ख़िलाफ़ आंदोलन का, मुहर्रम नाम है इन्साफ़ी के खिलाफ़ आंदोलन का, मुहर्रम नाम है बुराइयों के खिलाफ आंदोलन का।
दुनिया के सारे कैलेन्डर नये साल के साथ ख़ुशियों का पैग़ाम लेकर आते हैं लेकिन सिर्फ़ एक इस्लामी कैलेन्डर ऐसा होता है जो नये साल के साथ ग़म का पैग़ाम ले कर आता है। यह ग़म वो ग़म है जो सोते हुए इन्सान को झिंझोड़ता है, दिल के ज़ख़्मों पर मरहम रखता है, मज़लूमों के अंदर उम्मीद की रौशनी पैदा करता है और ज़ालिम के खिलाफ आवाज़ उठाने का हौसला देता है। आज से तक़रीबन 1400 साल पहले की बात है, सन् 61 हिजरी के मुहर्रम का महीना था, जब हज़रत मुहम्मद (स) के नवासे, इमाम हुसैन (अ) को उनके 72 साथियों के साथ बहुत बेदर्दी से कर्बला, इराक़ के बयाबान में, ज़ालिम यज़ीदी फ़ौज ने शहीद कर दिया था।
यजीद एक ज़ालिम बादशाह था। उसकी हुकूमत सिर्फ़ अरब देशों पर ही नहीं थी बल्कि ईरान, इराक़, यमन, सीरिया यहाँ तक कि अफ़रीक़ा, रूस और यूरप वग़ैरा के कुछ हिस्सों पर भी थी। अगर यह कहा जाए कि उसे उस ज़माने का सुपर पावर समझा जाता था तो ग़लत नहीं होगा। सीरिया जिसे शाम भी कहते हैं, उसकी राजधानी थी। यजीद मज़हब के नाम पर बुरी बातें फैलाना चाहता था। अपनी अय्याशी और ज़ुल्म व सितम को इस्लाम का नाम देना चाहता था। लेकिन उसे मालूम था कि वह अपने इस इरादे को पूरा करने में तब तक कामियाब नहीं हो सकता जब तक हज़रत मुहम्मद (स) के नवासे इमाम हुसैन (अ) उसका समर्थन न करें।
यह सोंच कर उसने आदेश दिया कि इमाम हुसैन (अ) से समर्थन लिया जाए और अगर इंकार करें तो उन्हें क़त्ल कर दिया जाये। यज़ीद की इस ताना शाही के खिलाफ़ कोई खड़े होने की हिम्मत नहीं कर रहा था। ऐसे में इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ उठ खड़े हुए और यजीद को उसके नाजायज़ मक़सद में कामियाब नहीं होने दिया।
इमाम हुसैन (अ) के साथियों ने उनका साथ दिया और यज़ीदी फौज के सामने डट कर खड़े हो गए। यहाँ तक कि 10 मुहर्रम को जिसे आशूरा भी कहते हैं, इमाम हुसैन (अ) और उन के साथियों ने शहादत को गले लगा लिया। ज़ालिम यज़ीदियों ने उनका पानी तक बंद कर दिया था। उसने सिर्फ़ नौजवानों को ही शहीद नहीं किया बल्कि बूढ़ों को भी शहीद किया। यहाँ तक कि छः महीने के बच्चे अली असगर को भी अपने बाप की गोद में तीर का निशाना बना दिया।
जंग के खत्म होने के बाद यज़ीदी फ़ौज ने औरतों, बच्चों और इमाम के एक बीमार बेटे को कैदी बना कर यजीद के पास शाम भेज दिया, जहाँ उन्हें क़ैदखाने में सख्तियाँ झेलनी पड़ीं। लेकिन इन क़ैदियों ने तमाम सख्तियों के बावजूद हार नहीं मानी और इमाम का संदेश दुनिया तक पहुँचाया। इमाम हुसैन (अ) शायद इसी लिए औरतों और बच्चों को भी साथ लाए धे।
इमाम हुसैन (अ) की यह क़ुर्बानी नाइन्साफ़ी को ख़त्म करने के लिए थी। इसीलिए हर साल मुहर्रम में इस क़ुर्बानी की याद सिर्फ मुसलमान ही नहीं मनाते बल्कि हर वो इन्सान मनाता है जो इन्साफ़ पसन्द है चाहे उसका ताल्लुक़ जिस धर्म और जिस मज़हब से हो। हमने हिंदुस्तान में हिन्दुओं, सिखों, ईसाईयों यहाँ तक कि किंन्नरों तक को इमाम हुसैन की अज़ादारी मानते ,मातम करते हुए देखा है। इमाम हुसैन के नाम पे बना हुआ इमामबाड़ा भी देखा है। बाँदा के बाजार में रामा का इमामबाड़ा मशहूर है जिसे बनवाने वाला एक हिन्दू था जो इमाम हुसैन का सच्चा अज़ादार था।
इसी को देखकर जोश मलीहाबादी ने कहा था :
इंसान को बेदार तो हो लेने दो
हर क़ौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन
या फिर एक हिन्दू शायर माथुर लखनवी ने कहा था :
आसमां की गोद में उतने सितारे भी नहीं
हर ज़बां पे जितनी बार आ जाता है हुसैन
जब कभी हम दुनिया में दहशतगर्दी , बेईमानी, ज़ुल्म व नाइंसाफ़ी देखें और अपने आप को अकेला महसूस करें तो कर्बला के पैग़ाम को याद करें। जो हमे याद दिलाता है की अगर ज़ुल्म के खिलाफ़ मुकाबले में अकेले हो या तादाद में कम हो तो थक कर घर में न बैठ जाना। सच्चाई की राह में अगर क़दम आगे बढाओगे तो याद रखो की जीत हमेशा सच्चाई की ही होगी। फिर चाहे उस सच्चाई के लिए तुम्हें अपनी जान क्यों न देनी पड़े।
इतिहास गवाह है कि ज़ालिम यज़ीद सारे ज़ुल्म करने के बाद भी अपने मक़सद में कामयाब नहीं हो सका और हार गया, लेकिन इमाम हुसैन (अ) जान दे के भी जीत गए। क्योंकि वो ज़ुल्म के आगे नहीं झुके और इन्सानियत को बचा लिया।
वक़ारे ख़ूने शहीदाने कर्बला की क़सम
यज़ीद मोर्चा जीता है जंग हारा है