अमेरिकी नौसेना की वेनेज़ुएला के पड़ोस में अभूतपूर्व उपस्थिति
अमेरिका ने हाल के महीनों में कैरेबियन क्षेत्र में जिस तेज़ी और आक्रामकता के साथ सैन्य उपस्थिति बढ़ाई है, वह न केवल अंतरराष्ट्रीय कानून के सिद्धांतों के विरुद्ध है, बल्कि क्षेत्रीय देशों की संप्रभुता के लिए भी सीधी चुनौती है। वेनेज़ुएला के पड़ोस में एक-तिहाई अमेरिकी नौसेना की तैनाती किसी रक्षा उपाय से अधिक एक दाब-नीति का हिस्सा दिखती है, जिसके माध्यम से वॉशिंगटन लैटिन अमेरिकी देशों पर राजनीतिक दबाव बढ़ाना चाहता है।
सबसे बड़े विमानवाहक पोत, दर्जनों अत्याधुनिक युद्धपोत और एफ-35 जैसे उन्नत लड़ाकू विमानों की तैनाती किसी सामान्य सुरक्षा गश्त की बात नहीं करती। यह अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान की उसी पुरानी सोच का उदाहरण है, जिसके अनुसार दुनिया के हर कोने में हस्तक्षेप उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। अमेरिका दशकों से लैटिन अमेरिका को अपने प्रभावक्षेत्र की तरह देखता आया है और वही मानसिकता आज भी जारी है।
कैरेबियन में अमेरिकी सेना द्वारा कई नौकाओं पर किए गए हमले, जिनमें कम से कम 80 लोगों की मौत हुई, अमेरिका की दोहरी नीतियों का ताज़ा उदाहरण हैं। एक ओर वह मानवाधिकारों की बात करता है, दूसरी ओर क्षेत्रीय जलक्षेत्र में बिना अनुमति कार्रवाई करके निर्दोष लोगों की जान ले लेता है। इन हमलों की व्यापक अंतरराष्ट्रीय निंदा इस बात का प्रमाण है कि अमेरिका की सैन्य कार्रवाई को कोई वैधता प्राप्त नहीं है।
वेनेज़ुएला और अन्य क्षेत्रीय देशों के लिए यह स्थिति एक तरह की सामरिक घेराबंदी जैसा माहौल पैदा करती है। जब कोई महाशक्ति किसी छोटे या मध्यम शक्ति वाले देश की सीमाओं के इतने पास विशाल सैन्य बल तैनात करे, तो यह “स्थिरता” नहीं बल्कि अस्थिरता को बढ़ावा देता है। यह कदम क्षेत्रीय संवाद, आपसी सम्मान और कूटनीति के सिद्धांतों को कमजोर करता है।
लैटिन अमेरिका का इतिहास बार-बार दिखाता है कि अमेरिकी हस्तक्षेप से क्षेत्र में शांति नहीं, बल्कि तनाव, आर्थिक दवाब और राजनीतिक अस्थिरता ही बढ़ती है। आज की घटनाएँ उसी पुराने हस्तक्षेपवादी रवैये की नई किस्त हैं। अमेरिका यदि वास्तव में स्थिरता चाहता है, तो उसे सैन्य शक्ति प्रदर्शन नहीं, बल्कि समानता और संप्रभुता के सम्मान की नीति अपनानी होगी।


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