नेहरू तानाशाही के खिलाफ संसदीय लोकतंत्र का प्रतीक हैं: मनोज झा
यह बड़ी खुशी की बात है कि हम संविधान पर चर्चा कर रहे हैं। यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि (लोकतंत्र) के दूसरे स्तंभ के कुछ लोग तो ईश्वर से संवाद करने लगे हैं। भगवान को कितना काम है—किसी की नौकरी लगवानी है, किसी की शादी करवानी है, किसी को चुनाव जिताना है। तो किसकी पर्ची निकलेगी, किसकी अर्जी लगेगी, पता नहीं। इसलिए अच्छा है कि हम संविधान के दायरे में बात कर रहे हैं। यह बातें आरजेडी संसद मनोज झा ने कही।
उन्होंने कहा, जब से मैं इस सदन में आया हूं, नेहरू पर बहुत चर्चा होती है। मैंने कई बार कहा है कि 2014 का चुनाव, 2019 का चुनाव और 2024 का चुनाव जवाहरलाल नेहरू ने नहीं हारे, विपक्ष हारा है, कांग्रेस हारी है। आप 100 साल भी चुनाव जीतें, तब भी नेहरू को वहीं खड़ा पाएंगे क्योंकि नेहरू तानाशाही के खिलाफ संसदीय लोकतंत्र का प्रतीक हैं।
नड्डा साहब ने जेपी का जिक्र किया। जयप्रकाश ऐसे व्यक्ति थे कि जब उन पर आलोचना नहीं होती थी, तो ‘छद्म’ नाम से खुद अपनी आलोचना लिखते थे। कश्मीर के मुद्दे पर जेपी ने नेहरू को जो चिट्ठी लिखी थी या इमरजेंसी के समय इंदिरा जी को जो चिट्ठी लिखी थी, वह चिट्ठी अगर आज मनोज कुमार झा अपने नाम से कॉपी-पेस्ट कर दें, तो जनाब, शाम तक मैं टीवी की बहसों में खलनायक बन जाऊंगा। चूंकि मैं सांसद हूं, इसलिए शायद यूएपीए न लगे, लेकिन कई आरोप जरूर लग जाएंगे।
दोनों तरफ (विपक्ष और सत्तापक्ष) ऐसी बातें हो रही हैं कि मेरी कमीज सफेद, तुम्हारी धुंधली। जरा संविधान की कमीज भी देख लो, वह धुंधली न हो, उस पर दाग न लगें, यही हमारा उद्देश्य होना चाहिए। आज से 25 साल बाद मैं इस सदन में नहीं रहूंगा। हममें से कई लोग उस समय नहीं होंगे, जब संविधान के 100 सालों पर चर्चा हो रही होगी। लेकिन लोग विश्लेषण करेंगे, बिल्कुल वैसे ही जैसे आज हम कर रहे हैं कि नेहरू को यह करना चाहिए था, नेहरू ने वह नहीं किया। 100 साल बाद कोई आपके बारे में भी आलोचना करेगा, और वह भी अच्छा नहीं लगेगा।
समय की मशीन नहीं है, वरना मैं अपने साथियों को 1946, 1947 में ले जाता। दोनों तरफ खून की नदियां बह रही थीं, मंदिर में गाय काटकर फेंकी जा रही थी, मस्जिद में सूअर फेंके जा रहे थे। उस दौर में एक नए देश के निर्माण का संकल्प लेना मामूली बात नहीं थी। गलतियां हुई होंगी, लेकिन आप उन्हें खलनायक क्यों बनाते हो? आपसे भी गलतियां होती हैं, हमसे भी हुई हैं। जब हम ऐसे नेताओं पर टिप्पणी करते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि 1947 में इस देश की क्या स्थिति थी।


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