बिहार की राजनीति, देश भर में चर्चा का विषय बनी

बिहार की राजनीति, देश भर में चर्चा का विषय बनी

बिहार: 18वीं लोकसभा चुनाव से पहले जिस तरह राज्य बिहार पूरे देश की राजनीति में केंद्र बिंदु बना हुआ था, चुनाव खत्म होने और सरकार बनने के बाद भी यह सिलसिला जारी है। इसके कई कारण हैं, खासकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की राजनीतिक अस्थिरता के चलते तरह-तरह की बातें होती रहती हैं जो देश के मीडिया के साथ-साथ देश के राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के बीच चर्चा का विषय बनी रहती हैं। पहले चुनाव से पहले के परिदृश्य पर एक नजर डालें तो हम देखते हैं कि पूरे देश की धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को यह उम्मीद थी कि उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसी बड़ी राज्यों के मुकाबले बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से बीस-पच्चीस सीटों पर इंडिया गठबंधन को जरूर जीत मिलेगी, क्योंकि उस समय बिहार में बीजेपी के खिलाफ भी बहुत नाराजगी थी और नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू के खिलाफ भी।

नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ इस वजह से नाराजगी थी कि उन्होंने ऐन वक्त पर पलटी मारते हुए धर्मनिरपेक्ष इंडिया गठबंधन को कमजोर कर दिया था। जबकि विपक्षी पार्टियों के गठबंधन में उनकी प्रमुख और केंद्रीय भूमिका थी, लेकिन न जाने क्या डर या राजनीतिक फायदे थे कि उन्होंने धर्मनिरपेक्ष गठबंधन को बीच मझधार में छोड़ दिया और सांप्रदायिक पार्टियों के साथ हो गए। उनके इस कदम से धर्मनिरपेक्ष सोच वाले बिहार के लोग नाराज हो गए और इस नाराजगी का नकारात्मक असर यह हुआ कि यह खुद भी लगभग हाशिए पर चले गए और उनकी सहयोगी पार्टी बीजेपी भी चुनावी अभियान में उनसे दूरी बनाने की कोशिश करती नजर आई।

ऐसी स्थिति बनने से मुश्किल से बने इंडिया गठबंधन को बिहार से बड़ी सफलता की उम्मीद हो गई। लोगों और धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की इस उम्मीद से राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू यादव और उनके युवा बेटे तेजस्वी यादव कुछ ज्यादा ही खुशफहमी में आ गए और यह खुशफहमी बाद में अहंकार में बदल गई कि उन्होंने गठबंधन में शामिल कांग्रेस समेत सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को नजरअंदाज करते हुए और किसी से सलाह-मशविरा किए बिना अपने खास लोगों को अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का टिकट देना शुरू कर दिया। आरजेडी की इस हरकत से यह करीब था कि पश्चिम बंगाल की तरह यहां भी इंडिया गठबंधन टूट जाता। लेकिन अपनी समझदारी और राजनीतिक सूझबूझ दिखाते हुए कांग्रेस और अन्य सहयोगी पार्टियों ने आरजेडी की हठधर्मिता को नजरअंदाज करते हुए सीट शेयरिंग को सफल बनाया।

इस सीट शेयरिंग में आरजेडी ने कांग्रेस समेत वामपंथी पार्टियों को भी कम समझते हुए अपने पास 40 सीटों में से 26 सीटें रखीं। कांग्रेस को सिर्फ 9 और वामपंथी पार्टियों को 5 सीटें ही दीं। बाद में मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी को गठबंधन में शामिल करते हुए अपनी सीटों में से 3 टिकट दिए और मुकेश सहनी को अपने साथ मिलाकर यह संदेश देने की कोशिश की कि यह बहुत बड़ा कारनामा है। मुकेश सहनी को महत्व देते हुए तेजस्वी यादव उन्हें हेलीकॉप्टर पर बिठाकर चुनावी दौरे पर ले गए। राज्य के किसी और नेता को साथ नहीं रखा कि यह तो आरजेडी के बंधुआ मजदूर हैं, जाएंगे कहां? तेजस्वी यादव को लगा कि सहनी की वजह से पूरा बिहार प्रभावित होगा और सफलता मिलेगी। लेकिन जब परिणाम सामने आए तो यह हकीकत सामने आई कि मुकेश सहनी का एक सीट पर भी जादू नहीं चला और खुद उनकी पार्टी तीनों सीटों से हार गई। मुसलमानों की नाराजगी भी सामने आ गई कि आरजेडी ने जिन दो उम्मीदवारों को टिकट दिया था, वे भी हार गए।

कांग्रेस ने बहुत चाहा कि बिहार की राजनीति में अपनी एक खास पहचान रखने वाले पप्पू यादव, जिन्होंने अपनी पार्टी जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) को कांग्रेस में इस विश्वास के बाद मिलाया था कि उन्हें पूर्णिया से लोकसभा का उम्मीदवार बनाया जाएगा, लेकिन लालू और तेजस्वी ने पप्पू यादव की पुरानी नाराजगी को बनाए रखते हुए अपने सम्मान का सवाल बना लिया और कांग्रेस को मजबूर किया कि वह किसी भी कीमत पर पप्पू यादव को उम्मीदवार न बनाए और यहां से पप्पू यादव के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया। इसी तरह बेगूसराय से देश के लोकप्रिय नेता कन्हैया कुमार को कांग्रेस अपना उम्मीदवार बनाना चाहती थी लेकिन लालू, तेजस्वी ने ऐसा करने से कांग्रेस को रोका। मजबूरी में कांग्रेस को कन्हैया कुमार को अंजान दिली से उम्मीदवार बनाना पड़ा, जिससे हारने के बाद कांग्रेस को और गठबंधन को बड़ा नुकसान हुआ।

कटिहार से कांग्रेस ने अपने पुराने नेता तारिक अनवर को टिकट देने का फैसला किया और यहां भी लालू, तेजस्वी ने तारिक अनवर को उम्मीदवार नहीं बनाने पर अड़े रहे, लेकिन आखिरकार सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से लालू को किसी तरह राजी किया गया। सिवान से आरजेडी के प्रमुख नेता रहे शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब ने बहुत चाहा कि आरजेडी उन्हें सिवान से उम्मीदवार बनाए, लेकिन आरजेडी ने उन्हें टिकट देने से साफ इनकार कर दिया। इस नाराजगी से हिना शहाब ने सिवान से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और आरजेडी उम्मीदवार से ज्यादा वोट पाकर दूसरे स्थान पर रहीं। अगर आरजेडी उन्हें टिकट दे देती तो हिना शहाब निश्चित रूप से आरजेडी की जीत में योगदान करतीं। अपनी दो बेटियों को टिकट देने और बड़ी संख्या में यादवों को उम्मीदवार बनाने जैसे गलत फैसलों से बिहार के धर्मनिरपेक्ष लोगों के बीच गलत संदेश गया, जिससे जो लोग नीतीश कुमार और जेडीयू से नाराज थे, वे उनकी तरफ खामोशी से चले गए। इस प्रकार जहां नीतीश कुमार बेकफुट पर थे, वह फ्रंटफुट पर आ गए।

उन्हें चुनावी नतीजों में अप्रत्याशित सफलता मिली और इस अप्रत्याशित सफलता ने नीतीश कुमार को किंग मेकर बना दिया। लेकिन किंग मेकर बनने के बाद भी वे जिस तरह मोदी के हर फैसले पर राजी होते दिखे, उसे बिहार के लोगों ने अपनी तौहीन माना और पहले की नाराजगी फिर लौट आई। इसका प्रमाण रुपौली विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में जेडीयू उम्मीदवार कलाधर मंडल की हार से मिला। आरजेडी की उम्मीदवार और पांच बार की विधायक बीमा भारती की हालत और भी खराब रही, जो तीसरे स्थान पर रहीं। बीमा भारती को हाल ही में आरजेडी ने पप्पू यादव के खिलाफ उम्मीदवार बनाया था, जिसमें वे बुरी तरह हारी थीं। इस पूरे परिदृश्य को देखने के बाद यह कहना मुश्किल नहीं है कि समय और परिस्थितियों के साथ यदि लालू और तेजस्वी अपने अहंकार में नहीं फंसते, तो निश्चित रूप से इस समय इंडिया गठबंधन अपनी सरकार बनाने की स्थिति में होता।

बीजेपी और जेडीयू के खिलाफ बिहार के लोगों में जो जोश और उत्साह था, उसे लालू और तेजस्वी के अहंकार ने खत्म कर दिया। अब जब अगले साल बिहार विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, आरजेडी और जेडीयू का राजनीतिक ग्राफ तेजी से गिरता नजर आ रहा है। इसे देखते हुए इनके खिलाफ कई तरह की रणनीतियां बन रही हैं। नीतीश कुमार पहले से ही नाराज बैठे हैं, क्योंकि आरजेडी ने नीतीश कुमार को समर्थन देकर सरकार बनाई और कुछ ही दिनों बाद हर फैसले पर आपत्ति जताई, ट्रांसफर और पोस्टिंग तक में हस्तक्षेप किया। नीतीश कुमार को केंद्र की राजनीति में दिलचस्पी लेने की सलाह दी जा रही थी। इन परिस्थितियों में नीतीश कुमार का नाराज होना स्वाभाविक था। ऐसे कई मामले सामने आए जहां लालू और तेजस्वी की हस्तक्षेप के कारण विवाद हुआ और नीतीश कुमार को मजबूरी में पलटी मारनी पड़ी, जिससे उनकी बदनामी भी हुई और उनका राजनीतिक कद भी कम हुआ।

आरजेडी की ऐसी ही हस्तक्षेप और अहंकार से कांग्रेस भी अंदर ही अंदर नाराज है। नतीजतन अब इस पहलू पर भी विचार किया जा रहा है कि क्यों न आगामी विधानसभा चुनाव में आरजेडी से अलग हो जाए। ऐसी प्रस्ताव राज्य की कई धर्मनिरपेक्ष पार्टियां दे रही हैं, क्योंकि आरजेडी चुनाव के समय भी अपनी खुशफहमी में ज्यादा सीटें खुद रखने और सहयोगी पार्टियों को कम सीटें देने की कोशिश करेगी, जो बर्दाश्त नहीं होगी। हालांकि, आरजेडी को बदलते समय और परिस्थितियों के अनुसार खुद में भी बदलाव लाने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बीजेपी जो बिहार में सत्ता में आने का सपना देख रही है, उसे कोई रोक नहीं पाएगा और धर्मनिरपेक्ष वोटों के बिखरने का भी खतरा है। इसलिए मेरे विचार में आरजेडी से अलग होने से बचने की जरूरत है, बशर्ते आरजेडी अपने रवैये में सकारात्मक बदलाव लाए और समय की नजाकत को समझे। साथ ही यादवों को प्राथमिकता देने के बजाय बिहार के सभी वर्गों को प्राथमिकता दे। अभी उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने ऐसा ही प्रयोग किया और सफल हुए। लालू और तेजस्वी को इस खुशफहमी से बाहर निकलना चाहिए कि वे सिर्फ यादव और मुस्लिम वोटों से सत्ता में आ जाएंगे, क्योंकि अतीत में भी देखा

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।

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