मदरसा एक्ट को समाप्त करना, टब में नहा रहे बच्चे को पानी के साथ बाहर फेंक देने के समान: सुप्रीम कोर्ट

मदरसा एक्ट को समाप्त करना, टब में नहा रहे बच्चे को पानी के साथ बाहर फेंक देने के समान: सुप्रीम कोर्ट

उत्तर प्रदेश के मदरसों पर हो रहे हमलों और उन्हें दबाने की कोशिश के बीच सुप्रीम कोर्ट से एक उम्मीद की किरण पैदा हुई है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) की सिफ़ारिशों और सरकारी आदेशों पर सोमवार को ‘स्टे’ देकर अदालत ने एक स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की है कि संवैधानिक संस्थाओं को भी संविधान के दायरे में रहकर काम करना होगा। इसके साथ ही सोमवार और मंगलवार को लगातार दो दिनों की सुनवाई और बहस पूरी करके अदालत ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि किसी विशेष वर्ग के पूरे शैक्षिक तंत्र को निशाना नहीं बनाया जा सकता, विशेष रूप से धार्मिक शिक्षा को समाप्त नहीं किया जा सकता, जो भारत की 700 साल पुरानी साझा सांस्कृतिक परंपरा का हिस्सा है।

चीफ़ जस्टिस की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने उत्तर प्रदेश के मान्यता प्राप्त और सहायता प्राप्त मदरसों से जुड़े मामले पर यह टिप्पणी करते हुए फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है। मदरसों से जुड़े लोग, विशेषकर जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, फ़ैसले को लेकर आशान्वित हैं।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने 22 मार्च 2024 को अपने एक फ़ैसले में यूपी मदरसा बोर्ड एक्ट 2004 को असंवैधानिक करार देते हुए इसे रद्द कर दिया था और मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को अन्य स्कूलों में प्रवेश दिलाने का आदेश दिया था। 5 अप्रैल 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस फ़ैसले पर रोक लगाते हुए पूरे मामले की नए सिरे से सुनवाई के लिए जुलाई 2024 के तीसरे हफ्ते की तारीख़ तय की थी, लेकिन कई बार तारीख़ तय होने के बावजूद सुनवाई नहीं हो सकी थी। आख़िरकार, 21 और 22 अक्टूबर 2024 को मामले पर विस्तृत सुनवाई हुई और फ़ैसला सुरक्षित कर लिया गया।

सुनवाई के दौरान, चीफ़ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने कई महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि धार्मिक शैक्षिक संस्थानों को विनियमित करने वाले किसी भी बोर्ड या संस्था को धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ नहीं समझा जा सकता, बल्कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ ‘जीओ और जीने दो’ के सिद्धांत पर आधारित है। अदालत ने कहा कि मदरसा एक्ट को समाप्त करना ऐसा है जैसे किसी टब में नहा रहे बच्चे को पानी के साथ बाहर फेंक देना। वकीलों द्वारा प्रस्तुत तर्कों में कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 28(2) के अनुसार, सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों में धार्मिक शिक्षा देने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।

चीफ़ जस्टिस ने यह भी इंगित किया कि अनुच्छेद 28(3) यह अधिकार प्रदान करता है कि एक छात्र स्वेच्छा से धार्मिक शिक्षा प्राप्त कर सकता है, लेकिन मूल शर्त यह है कि इसमें कोई ज़बरदस्ती नहीं होनी चाहिए। NCPCR और अंशुमन सिंह राठौर के वकीलों, जिनमें वरिष्ठ अधिवक्ता माधवी दीवान शामिल थीं, ने मदरसों की शिक्षा को धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ और शिक्षा प्रणाली को ‘राइट टू एजुकेशन एक्ट 2009’ के विपरीत बताया और यह साबित करने की कोशिश की कि मदरसों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी है और वहां पढ़ने वाले छात्रों को आधुनिक और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा जा रहा है।

मदरसों के वकीलों ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि किसी भी बच्चे का अपनी पसंद की शिक्षा प्राप्त करना और माता-पिता का अपनी मर्ज़ी से अपनी संतानों को शिक्षा दिलाना मौलिक अधिकारों में शामिल है, जिसे रोका नहीं जा सकता। इन वकीलों ने मदरसा बोर्ड की पाठ्यपुस्तकों के हवाले से यह साबित किया कि मदरसों में आधुनिक शिक्षा का उचित प्रबंध है। हालांकि मदरसों की ‘फाज़िल’ और ‘कामिल’ डिग्री को किसी विश्वविद्यालय से मान्यता दिलाने की ज़रूरत है, जिसके लिए मदरसा बोर्ड द्वारा कई बार सरकार को प्रस्ताव भेजा गया है, लेकिन अभी तक इस पर मंज़ूरी नहीं दी गई है।

कुल मिलाकर अदालत ने विभिन्न मिसालों और न्यायिक फ़ैसलों का हवाला देते हुए कहा कि सरकार को मदरसा शिक्षा प्रणाली में सुधार करने और इसे बेहतर, समग्र और आधुनिक आवश्यकताओं के अनुरूप बनाने का पूरा अधिकार है, लेकिन कुछ आपत्तियों और खामियों के कारण पूरे मदरसा तंत्र को समाप्त कर देना जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। अदालत ने यह भी कहा कि मदरसों की तरह अन्य धर्मों के भी शैक्षिक संस्थान सरकारी सहायता से चल रहे हैं, जो किसी न किसी धर्म के प्रभाव में पले-बढ़े हैं और उनकी वैज्ञानिक महत्ता भी है। अब संबंधित पक्षों की निगाहें फ़ैसले पर टिकी हुई हैं।

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