संयुक्त राष्ट्र ने ईरान पर दोबारा अंतरराष्ट्रीय पाबंदियां लागू करने की घोषणा की
संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद के हालिया निर्णयों ने एक बार फिर ईरान पर 2015 से पहले लागू हुए कारगर पाबंदियाँ बहाल कर दी हैं, जिसे कई देशों ने ‘स्नैपबैक मैकेनिज़्म’ के तहत लागू करवाया। फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी की पहल ने इस प्रक्रिया को सक्रिय कर दिया और परिणामस्वरूप वो प्रतिबंध जो 2015 के परमाणु समझौते (JCPOA) के बाद हटाए गए थे, फिर से प्रभाव में आ गए। यह कदम वैश्विक कूटनीति में एक नया तनाव पैदा कर सकता है।
ईरान ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि, उसकी नाभिकीय नीति शांतिपूर्ण है और उसका उद्देश्य परमाणु हथियार नहीं बनाना, बल्कि अपनी वैज्ञानिक तथा ऊर्जा संबंधी आवश्यकताओं की रक्षा करना है। तेहरान की यह दलील विश्लेषकों द्वारा अक्सर रेखांकित की जाती रही है, फिर भी पश्चिमी धारणा और उन शक्तियों की कार्रवाईयों ने ईरान के विरुद्ध सख्त रुख अपनाने को प्राथमिकता दी है। इस बीच अमेरिका और इज़रायल के माध्यम से किए गए सैन्य हमलों की रिपोर्टें और यूरोपीय सहयोगियों की कूटनीतिक चालें इस बात का संकेत देती हैं कि दबाव और प्रतिबंधों का सहारा अब नीति का हिस्सा बन गया है।
पाबंदियों के ऐसे उपयोग का सामाजिक और आर्थिक प्रभाव ईरानी आम जनता पर सबसे अधिक संकुचनशील रहेगा। प्रतिबंध न केवल राज्य की सरकारी क्षमताओं पर असर डालते हैं, बल्कि रोज़मर्रा की आर्थिक ज़रूरतों, नौकरी, आयात-निर्यात, दवाओं और बुनियादी सेवाओं तक पहुँच को भी गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं। ऐसे माहौल में यह सवाल उठता है कि, क्या कूटनीति और संवाद के रास्ते बंद कर देने से लंबे समय में संकट हल होगा या केवल बढ़ेगा।
राजनीतिक नज़रों से देखा जाए तो पाबंदियाँ अक्सर रणनीतिक दवाब का उपकरण बन जाती हैं — पर सवाल यह है कि, किस हद तक इन उपकरणों का प्रयोग न्यायसंगत और लक्ष्य-केंद्रित है। ईरान के समर्थकों का तर्क यही है कि इच्छित परिणाम तब ही मिलेंगे जब दोनों पक्ष वार्ता की मेज पर लौटें और पारस्परिक आशंकाओं का समाधान करेंगे। वहीं आलोचक कहते हैं कि बिना शर्त प्रतिबंध और सैन्य दबाव संघर्ष को अंदरूनी रूप से जमी हुई कट्टरता और अस्थिरता की ओर धकेल सकता है।

