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डॉलर के लिए चिंतित ट्रंप की ब्रिक्स देशों को धमकी

डॉलर के लिए चिंतित ट्रंप की ब्रिक्स देशों को धमकी

अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप धमकियों और बड़बोलेपन के लिए मशहूर हैं। वह आज भी धमकियां देकर बात कर रहे हैं, जबकि दुनिया उनके देश की नीतियों से उलझी हुई है। यह तो समय ही बताएगा कि उनकी चेतावनी सिर्फ चेतावनी बनकर रह जाएगी या इसका असर BRICS देशों पर पड़ेगा, लेकिन उन्होंने साफ शब्दों में कहा है कि ‘डॉलर से दूर जाने की कोशिश को हम चुपचाप नहीं देखेंगे, यह दौर अब खत्म हो गया है।’

ट्रंप के अनुसार, ‘हमें (BRICS के) इन देशों से यह आश्वासन चाहिए कि वे न तो BRICS की कोई अलग मुद्रा बनाएंगे, न ही अमेरिकी डॉलर को बदलने के लिए किसी अन्य मुद्रा का समर्थन करेंगे, क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें 100 प्रतिशत टैरिफ का सामना करना पड़ेगा।’ सवाल यह है कि क्या डोनाल्ड ट्रंप की इस चेतावनी को वे BRICS देश गंभीरता से लेंगे, जो अमेरिका की प्रतिबंधों को खत्म करने के लिए वैश्विक व्यापार में डॉलर का दबदबा समाप्त करना चाहते हैं? ट्रंप की चेतावनी पर विचार करते हुए यह समझना होगा कि हालात पहले जैसे नहीं रहे हैं। यूक्रेन और ग़ाज़ा युद्ध में अपने रोल के कारण अमेरिका की छवि खराब हुई है, और उसका दोहरा चरित्र भी सामने आया है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के एक मज़बूत नेता हैं। एक बार हारने के बावजूद दूसरी बार राष्ट्रपति बनना उनकी ताक़त का सबूत है। वह युद्धों में उलझे बिना अमेरिका को ज्यादा से ज्यादा मजबूत बनाना चाहते हैं। ट्रंप ने अपनी पहली राष्ट्रपति अवधि में ही यह इशारा कर दिया था कि उनकी नीति अस्पष्ट नहीं है। उनकी अध्यक्षता में अमेरिका ने चीन के खिलाफ ट्रेड वॉर शुरू किया था, और वुहान से कोरोना वायरस फैलने के बाद उन्होंने इसे चीन से जोड़ने की कोशिश की, लेकिन यूरोपीय नेताओं ने उनका साथ नहीं दिया।

यूरोपीय नेता इसे ‘चाइना वायरस’ या ‘वुहान वायरस’ कहने के लिए तैयार नहीं हुए। यह इस बात का संकेत था कि यूरोपीय देशों पर अमेरिका की पहले जैसी पकड़ नहीं रही, जबकि यूरोप में चीन का प्रभाव बढ़ा है। जब क्वाड गठित हुआ, तो अमेरिका ने ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस के समझौते का ध्यान नहीं रखा, जो फ्रांस के लिए महत्वपूर्ण था। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने यह संकेत दिया कि ताइवान पर उनका और यूरोपीय संघ का रुख अमेरिका से अलग होगा।

दूसरी ओर, फरवरी 2022 में यूक्रेन युद्ध के बाद हालात और बदल गए। इस युद्ध ने यूरोपीय देशों को चिंतित कर दिया। रूस के करीबी माने जाने वाले यूरोपीय देश भी यूक्रेन के साथ खड़े हो गए और रूस के खिलाफ यूक्रेन की मदद करने लगे। इससे अमेरिका के लिए यूक्रेन को मजबूत करना आसान हो गया। इसका असर रूस पर पड़ा, और युद्ध में रूस को भारी नुकसान हुआ।

अमेरिका और उसके सहयोगी यूरोपीय देशों ने प्रतिबंध लगा कर रूस को आर्थिक रूप से कमजोर करने की कोशिश की। यही वह समय था जब रूस के राष्ट्रपति पुतिन को यह समझ में आया कि अमेरिका की ताकत डॉलर में है। इसकी वजह से ही अमेरिकी प्रतिबंधों का असर होता है, क्योंकि दुनिया का 50 प्रतिशत से अधिक व्यापार डॉलर में होता है और लेन-देन के सिस्टम पर भी अमेरिका और उसके सहयोगियों का दबदबा है।

इसी कारण रूस ने एक नया लेन-देन प्रणाली स्थापित करने की कोशिश शुरू की। डॉलर के दबदबे को समाप्त करने के लिए रूस ने अन्य देशों के साथ अपनी-अपनी मुद्राओं में व्यापार करने में रुचि दिखाई। इस मामले में चीन ने रूस का साथ दिया, क्योंकि शी जिनपिंग की कोशिश है कि चीन, अमेरिका की जगह ले और इसके लिए डॉलर का कमजोर होना और युआन का मजबूत होना जरूरी है। 2022 की तुलना में 2023 में चीन और रूस के बीच 26.3 प्रतिशत वृद्धि के साथ 240.1 अरब डॉलर का व्यापार हुआ। इसमें से 92 प्रतिशत भुगतान दोनों देशों ने रूसी रूबेल और चीनी युआन में किया। इसके बाद ही BRICS मुद्रा का विचार उभरा है।

वैसे डॉलर को मजबूत करने के संदर्भ में अमेरिकी नेताओं को उस समय से सोचना शुरू कर देना चाहिए था जब यूरो का परिचय कराया गया था। यूरोपीय संघ के 20 देशों की सरकारी मुद्रा यूरो 1 जनवरी 1999 को पेश की गई थी। इसके पहले डॉलर की जो वैल्यू थी, आज वैसी नहीं रही। अब यह देखना होगा कि ट्रंप की चेतावनी का क्या असर पड़ता है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।

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