मोबाइल लोकेशन शेयर करना जमानत की शर्त नहीं, सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि आरोपियों को जमानत देने के लिए उनकी गतिविधियों पर नजर रखने के उद्देश्य से गूगल पिन की लोकेशन संबंधित जांच अधिकारियों के साथ शेयर करने की शर्त नहीं रखी जा सकती। इस निर्णय को न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयां की पीठ ने नाइजीरियाई नागरिक फ्रैंक विट्स के मामले में सुनाया, जिसे ड्रग तस्करी के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
मामले का विवरण:
फ्रैंक विट्स ने दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिए गए आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। दिल्ली हाईकोर्ट ने विट्स को जमानत देने के लिए उसकी मोबाइल लोकेशन को पुलिस के साथ शेयर करने की शर्त रखी थी। विट्स ने इस शर्त को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि यह उसके संविधान द्वारा गारंटीकृत स्वतंत्रता और गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपने फैसले में कहा, “जमानत की शर्त ऐसी नहीं हो सकती जो जमानत के मूल उद्देश्य को खत्म कर दे। ऐसी कोई शर्त नहीं हो सकती जो पुलिस को आरोपियों की गतिविधियों पर लगातार नजर रखने के काबिल बनाए।”
पीठ ने यह भी माना कि जमानत की शर्त के रूप में गूगल पिन के स्थान को शेयर करने की शर्त भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत निजता के अधिकार को प्रभावित करती है। पीठ ने कहा, “यह जमानत की शर्त नहीं हो सकती। हम इस बात से सहमत हैं कि ऐसी दो उदाहरणें हैं जहां इस अदालत ने ऐसा किया है, लेकिन यह जमानत की शर्त नहीं हो सकती।”
निजता का अधिकार:
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 2017 के ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया, जिसमें नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से कहा था कि गोपनीयता का अधिकार भारतीय संविधान के तहत एक मूलभूत अधिकार है। पीठ ने कहा कि एक बार जब किसी आरोपी को अदालतों द्वारा निर्धारित शर्तों के साथ जमानत पर रिहा कर दिया जाता है, तो उसके ठिकाने को जानना और उसका पता लगाना अनुचित हो सकता है क्योंकि इससे उसके गोपनीयता के अधिकार में हस्तक्षेप हो सकता है।
फैसले का प्रभाव:
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न केवल फ्रैंक विट्स के मामले में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भविष्य में भी न्यायिक प्रथाओं और जमानत देने की शर्तों को निर्धारित करने में एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम करेगा। इस निर्णय से स्पष्ट हो गया है कि अदालतें आरोपियों की स्वतंत्रता और गोपनीयता के अधिकार का सम्मान करेंगी और बिना उचित कारण के इन अधिकारों का उल्लंघन नहीं होने देंगी।
इस ऐतिहासिक फैसले से यह भी सुनिश्चित हुआ है कि जांच और निगरानी के नाम पर किसी भी आरोपी की निजी स्वतंत्रता और गोपनीयता के अधिकार को खतरे में नहीं डाला जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि न्यायिक प्रक्रियाओं में आरोपी के मानवाधिकारों का सम्मान सर्वोपरि है।