दुनिया की राजनीति, सामरिक टकराव और धार्मिक संघर्षों के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि अरब जगत आज इतना असहाय क्यों है? जिस धरती पर कभी महान सभ्यताएँ फली-फूलीं, जिसने विज्ञान, दर्शन और व्यापार में दुनिया को नई दिशा दी, वही अरब दुनिया आज दूसरों के सामने बेबस और लाचार क्यों नज़र आती है? तेल और गैस जैसी अपार प्राकृतिक संपदाओं के बावजूद, अरब देशों की हालत ऐसी क्यों है कि इज़रायल जैसा छोटा देश उन्हें बार-बार परास्त करता है?
यह प्रश्न केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और नैतिक भी है। इसे समझने के लिए हमें अरब जगत के वर्तमान हालात, उसके संसाधनों, उसके शासकों की नीतियों और इज़रायल की रणनीति पर गहराई से विचार करना होगा। फ़िलिस्तीन, लेबनान, सीरिया, यमन, ईरान और अब क़तर पर इज़रायल के हमले, यह साबित कर रहे हैं कि अरबों की स्थिति बंदर की उछल-कूद जैसी है—शोर और हलचल बहुत, लेकिन नतीजा शून्य।
बंदर की कहानी और अरब दुनिया
एक मशहूर दास्तान है कि, एक बार जंगल के सभी जानवरों ने फैसला किया कि, शेर को सिंहासन से हटा कर किसी और को यह पद देना चाहिए। बहस के बाद बंदर को योग्य समझा गया और उसे जंगल का राजा बना कर सिंहासन पर बिठा दिया गया। एक दिन शेर ने एक बकरी का बच्चा उठा लिया। बकरी रोती हुई बंदर के पास आई और शिकायत करते हुए बोली कि, मेरे बच्चे को लौटाइए, उसे शेर सेब बचाईये। पहले तो बंदर ने ध्यान से उसकी बातें सुनीं। जब बकरी अपनी बात कहकर चुप हो गई तो बंदर एक छलांग लगा कर पेड़ की चोटी पर चला गया; थोड़ी देर बैठा, फिर नीचे आया और एक डाल से दूसरी डाल पर कूदने लगा — एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर, दूसरी डाल से तीसरी डाल पर कूदने लगा।
बकरी रोती रही और देखती रही। जब उसे यकीन हुआ कि बंदर रुकने वाला नहीं तो उसने कहा: “हुज़ूर، मेरे बच्चे को शेर ने उठा लिया है; अगर आप ऐसे ही उछलते-कूदते रहे तो वह उसे खा जाएगा।” यह सुनकर बंदर रुका और गौर से उसे देखने के बाद कहा: “तुम्हारा बच्चा ज़िंदा बचेगा या नहीं, इससे मुझे कोई सरोकार नहीं; हमारी मेहनत और उछल कूद में कोई कमी रह गई है तो बताओ?”— और बात यहीं खत्म हो गई।
अरब दुनिया ने फ़िलिस्तीन के साथ यही किया है। उसने इसके सिवा बहुत कम या कुछ नहीं किया है। इज़रायल ने लेबनान, सीरिया, ईरान, यमन के बाद जब क़तर पर भी हमला कर दिया तो वही घटनाक्रम फिर से शुरू हो गया।
इज़रायल का लक्ष्य: धार्मिक वर्चस्व
पूरी दुनिया यह जानती है कि इज़रायल का मक़सद सिर्फ़ ज़मीन का विस्तार नहीं है। उसका असली एजेंडा एक धार्मिक और वैचारिक युद्ध है। इज़रायली प्रधानमंत्री नेतन्याहू खुले शब्दों में कह चुके हैं कि यह धरती उनका हक़ है और वह इसे लेकर रहेंगे। “ग्रेटर इज़रायल” का सपना कोई छिपी हुई योजना नहीं है, बल्कि खुले तौर पर स्वीकार किया गया लक्ष्य है। इसके विपरीत, अरब जगत इस पूरे संघर्ष को सिर्फ़ बयानबाज़ी और दिखावे तक सीमित कर देता है। ऐश-ओ-आराम में डूबी सरकारें अपने सिंहासन को बचाने को ही सबसे बड़ा काम मानती हैं। यही कारण है कि इज़रायल को आज़ादी मिली हुई है कि वह जब चाहे, जिस देश पर चाहे हमला करे और दुनिया को यह दिखा दे कि, अरब देश महज़ कागज़ी शेर हैं।
सऊदी अरब को भारत से रिश्ता मज़बूत करना चाहिए
भगवान ने अरबों को तेल और प्राकृतिक संसाधनों की अपार दौलत दी। इस दौलत ने अरब समाज का चेहरा बदल दिया, लेकिन साथ ही संतुलन भी छीन लिया। अरब शासक सोचने लगे कि दौलत ही सब कुछ है—ज्ञान, शोध और मेहनत जैसी चीज़ें उनके लिए ज़रूरी नहीं।आधुनिक हथियार, आलीशान महल, लग्ज़री गाड़ियाँ, तकनीक से लैस जीवन—सब कुछ उन्होंने पैसा देकर खरीद लिया। मगर यह भूल गए कि सुरक्षा, आत्मनिर्भरता और शोध केवल पैसों से नहीं खरीदे जा सकते। यही वजह है कि अरब सेनाएँ आज प्रतीकात्मक हैं। हथियार तो हैं, लेकिन उनका मालिकाना हक़ नहीं। युद्धक विमानों से लेकर गोलियों तक, सब पश्चिमी देशों से खरीदे जाते हैं और उनके इस्तेमाल पर भी कई शर्तें होती हैं।
अंततः, सऊदी अरब को अपने भविष्य की दिशा में सोचते हुए रिश्तों की प्राथमिकता तय करनी होगी। भारत के साथ साझेदारी सिर्फ़ आर्थिक नहीं बल्कि रणनीतिक, सांस्कृतिक और तकनीकी दृष्टि से भी लाभकारी है। इसके विपरीत, पाकिस्तान के साथ रिश्ता रखने का मतलब है खुद को अस्थिरता और अनिश्चितता से जोड़ना। इसीलिए कहा जा सकता है कि सऊदी अरब के लिए आज की सबसे समझदारी भरी नीति यही होगी कि वह भारत के साथ अपने रिश्तों को और अधिक गहरा करे और पाकिस्तान की जगह भारत को अपना मज़बूत सहयोगी बनाए। सऊदी अरब आज बदलते वैश्विक परिदृश्य में अपनी विदेश नीति को नए सिरे से गढ़ रहा है। ऐसी सूरत में सऊदी अरब को भारत से रिश्ता मज़बूत करना चाहिए, पाकिस्तान से नहीं। सऊदी को पाकिस्तान से ज़्यादा भारत से रिश्ता मज़बूत करना चाहिए। इसके कई प्रमुख कारण हैं:
पहला कारण: आर्थिक स्थिरता
भारत आज दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और आने वाले वर्षों में तीसरे स्थान तक पहुँचने का अनुमान है। सऊदी अरब का Vision 2030 तेल-आधारित अर्थव्यवस्था से हटकर विविध क्षेत्रों में निवेश करने का लक्ष्य रखता है। इस दिशा में भारत एक विशाल और भरोसेमंद बाज़ार प्रदान करता है—आईटी, फार्मा, इंफ्रास्ट्रक्चर और नवीकरणीय ऊर्जा तक। दूसरी ओर पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था लंबे समय से कर्ज़, महँगाई और अस्थिरता से जूझ रही है, जिससे सऊदी अरब को कोई बड़ा फायदा नहीं मिल सकता।
दूसरा कारण: भरोसेमंद साझेदारी
भारत एक स्थिर लोकतंत्र है जिसकी विदेश नीति स्पष्ट और संतुलित रहती है। सऊदी अरब को ऐसे साथी की ज़रूरत है जो दीर्घकालिक निवेश और विकास परियोजनाओं में विश्वास बनाए रखे। पाकिस्तान बार-बार राजनीतिक संकटों, सैन्य तख़्तापलट और आतंकवाद से जूझता रहा है। यही कारण है कि कई बार पाकिस्तान ने सऊदी के लिए मुश्किलें भी खड़ी की हैं, चाहे वह कट्टरपंथ को बढ़ावा देना हो या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दोहरे रवैये अपनाना।
तीसरा कारण: जनसांख्यिकीय और मज़दूर संबंध
सऊदी अरब में लाखों भारतीय कामगार हैं, जो सऊदी अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। भारत से आने वाले ये कामगार मेहनती, अनुशासित और सऊदी समाज के लिए उपयोगी हैं। पाकिस्तान के मज़दूरों की तुलना में भारतीय कामगारों की छवि बेहतर और विश्वसनीय मानी जाती है।
चौथा कारण:भू-राजनीतिक स्थिति
इसके अलावा, भू-राजनीतिक स्थिति भी महत्त्वपूर्ण है। भारत आज अमेरिका, यूरोप, रूस और खाड़ी देशों सभी के साथ मजबूत रिश्ते बना रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि एक संतुलित और शक्तिशाली राष्ट्र की है। जबकि पाकिस्तान आतंकवाद और कट्टरपंथ से जुड़े मुद्दों के कारण विश्व समुदाय में अलग-थलग पड़ता जा रहा है। सऊदी अरब अगर पाकिस्तान पर भरोसा करता रहा, तो वह अपनी वैश्विक छवि को नुकसान पहुँचा सकता है।
आगे का रास्ता : आत्मनिर्भरता और एकता
अब समय आ गया है कि अरब दुनिया अपनी आँखें खोले।
पहला कदम — यह स्वीकार करना होगा कि इज़रायल केवल भूभाग नहीं, बल्कि धार्मिक और वैचारिक कब्ज़ा चाहता है।
दूसरा कदम — अपनी सुरक्षा के लिए रिसर्च, इनोवेशन और आत्मनिर्भरता पर ध्यान देना होगा।
तीसरा कदम —अमेरिका और उसके दलालों के शिकंजे से निकलना होगा।
चौथा कदम — भारत, ईरान, चीन और रूस जैसे देशों के साथ वैज्ञानिक सहयोग बढ़ाकर तकनीकी रूप से मज़बूत होना होगा।
यदि अरब देश यह रास्ता नहीं अपनाते, तो आने वाले सालों में उन्हें और भी अपमान और पराजय का सामना करना पड़ेगा। सिर्फ़ धन और बयानबाज़ी से कुछ नहीं होगा; दुनिया में वही सम्मान पाता है जिसके पास आत्मनिर्भरता और शक्ति हो।
अरब जगत की वर्तमान असहायता उसकी अपनी गलतियों का नतीजा है। ऐश और दिखावे में खोकर उसने ज्ञान, शोध, नवाचार और आत्मनिर्भरता को भुला दिया। फ़िलिस्तीन की त्रासदी इसका सबसे बड़ा सबूत है। आज भी अगर अरब देश न चेते तो इज़रायल का विस्तारवादी सपना हक़ीक़त बन जाएगा और अरब दुनिया केवल बंदर की उछल-कूद की तरह तमाशाई रह जाएगी। दुनिया जन्नत बने या जहन्नम—यह केवल कर्मों पर निर्भर है। यदि अरब जगत ने साहस, एकता और शोध का रास्ता चुना, तो वह न सिर्फ़ अपनी असहायता से बाहर निकल सकता है, बल्कि इज़रायल और उसके समर्थकों को चुनौती भी दे सकता है। वरना इतिहास की किताबों में अरबों का नाम केवल एक ऐसे क़ौम के तौर पर दर्ज होगा जिसने सब कुछ होते हुए भी अपनी बेबसी साबित कर दी।
सुरक्षा का अभाव और अमेरिका पर निर्भरता
अरब देशों ने अपनी सुरक्षा पूरी तरह अमेरिका और उसके सहयोगियों पर छोड़ दी है। उनकी सेनाओं की ट्रेनिंग, हथियारों की आपूर्ति और रणनीति तक विदेशी हाथों में है। परिणाम यह है कि अरब देश अपने ही हथियारों का इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र नहीं। अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए अरब सेनाएँ केवल एक ग्राहक हैं—जो हथियार खरीदते हैं, लेकिन असल शक्ति उनके पास नहीं। यही कारण है कि, जब इज़रायल हमला करता है तो अरब सेनाएँ चुप रहती हैं। उनके पास न तो स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता है, न ही हथियारों पर वास्तविक नियंत्रण। नेतन्याहू का यह कहना कि “यदि आपके हाथ में मोबाइल है तो आपके पास इज़रायल का एक टुकड़ा है” केवल तकनीकी श्रेष्ठता का अभिमान नहीं, बल्कि अरबों के लिए सीधी चेतावनी भी है कि उनका हर क़दम इज़रायल की पकड़ में है।
फ़िलिस्तीन की तन्हाई
सबसे बड़ी त्रासदी फ़िलिस्तीन की है। दशकों से फ़िलिस्तीनी बच्चे, महिलाएँ और बुज़ुर्ग मौत और तबाही झेल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र तक ने अपनी रिपोर्ट में वहाँ नरसंहार को स्वीकार किया, लेकिन अरब दुनिया ने सिवाय निंदा और बयान के कोई ठोस कदम नहीं उठाए। फ़िलिस्तीन आज भी डरा-सहमा हुआ है क्योंकि उसके अपने भाई ही उसका साथ नहीं दे रहे। अब्राहम समझौतों के ज़रिए कई अरब देशों ने इज़रायल से औपचारिक संबंध बना लिए, और कुछ गुप्त रूप से भी उसके सहयोगी हैं। व्यापार, निवेश और कूटनीतिक रिश्तों की आड़ में अरबों ने फ़िलिस्तीन को अकेला छोड़ दिया। यही कारण है कि इज़रायल दिन-ब-दिन और ताक़तवर होता जा रहा है।
असल समस्या: ऐश और आत्ममुग्धता
अरबों की असली समस्या उनकी ऐशपरस्ती और आत्ममुग्धता है। तेल से मिलने वाली दौलत ने उन्हें यह यक़ीन दिला दिया कि वे दुनिया की हर चीज़ हासिल कर सकते हैं। मगर वे भूल गए कि अगर अस्तित्व ही सुरक्षित न हो तो ऐश का कोई मतलब नहीं। दुनिया की सबसे महंगी कारें, गगनचुंबी इमारतें और लग्ज़री सामान होने के बावजूद अरब आज भी सुरक्षा के लिए पश्चिम के मोहताज हैं।
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