वर्तमान युद्ध कानून, इज़रायल पर क्यों लागू नहीं होते ??
गाजा में चल रहे इज़रायल युद्ध से हर रोज वहां तबाही मच रही है। इज़रायल अपने बमबारी विमानों से सिर्फ वहां की इमारतों, स्कूलों, सड़कों, अस्पतालों और अन्य बुनियादी सुविधाओं को ही नहीं नष्ट कर रहा है, बल्कि हजारों फिलिस्तीनियों को भी बर्बर तरीके से शहीद करके सभी युद्ध कानूनों को बेकार बना रहा है। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हत्या की राजनीति पर चलना इज़रायल के लिए कोई नई बात नहीं है। अपने स्थापना के पहले दिन से ही इज़रायल इस नीति पर चलता रहा है। कितने ही प्रसिद्ध फिलिस्तीनी नेताओं की इज़रायल ने अपनी इसी नीति के तहत हत्या कर दी। इन फिलिस्तीनी नेताओं में ‘अलजबहह अलशबबियह लितहरीर फिलिस्तीन’ के करिश्माई नेता ग़स्सान क़नफानी, ‘फतह’ से जुड़े प्रसिद्ध फिलिस्तीनी नेता खलील इब्राहीम अलवज़ीर (अबू जिहाद), ‘हमास’ के संस्थापक शेख़ अहमद यासीन और ‘अलजिहाद अलइस्लामी’ के नेता फातही अलशकाकी जैसी महत्वपूर्ण हस्तियाँ शामिल हैं।
इन सभी बड़े नेताओं को निशाना बनाकर रास्ते से हटाने की यह रफ्तार 70 के दशक में अपेक्षाकृत कम थी क्योंकि इस पूरे दशक में शहीद किए गए फिलिस्तीनी नेताओं की संख्या 14 तक पहुंची थी। नई सदी के पहले दशक तक यह संख्या 150 से भी अधिक हो गई थी। जनवरी 2020 से अब तक यह संख्या 24 हो चुकी है। ‘विकिपीडिया’ पर तो बाकायदा एक पृष्ठ इसके लिए खास है जिसमें इज़रायल की इस शर्मनाक हरकत को उसकी सफलता की सूची के रूप में प्रस्तुत किया गया है। लेकिन इस सूची का सबसे दुखद पहलू यह है कि इसमें शहीद किए जाने वाले प्रमुख फिलिस्तीनी नेताओं के नाम का तो जिक्र है, लेकिन इसका कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है कि एक फिलिस्तीनी नेता को शहीद करते समय इज़रायल ने उनके साथ कितने निर्दोष बच्चों, महिलाओं और रोगियों को भी मौत के घाट उतार दिया।
इज़रायल की इस बदकारी और बदचलनी को समझने के लिए 13 जुलाई को नेतन्याहू द्वारा आयोजित की जाने वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस को देखना और समझना होगा। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस का आयोजन इस संदर्भ में किया जा रहा था कि गाजा में ‘हमास’ के मिलिट्री नेता मोहम्मद अल-दीफ के हत्या की कोशिश का जश्न मनाया जाना था। इज़रायल ने इससे कुछ घंटे पहले ही खान युनुस के अलमवासी कैंप पर युद्ध विमानों और ड्रोन से हमला करके कुछ ही मिनटों के अंदर 90 से अधिक आम फिलिस्तीनियों को शहीद और 300 निर्दोषों को घायल कर दिया था। हालांकि इज़रायल ने खुद ही इस इलाके को सुरक्षित घोषित करके फिलिस्तीनियों को वहां स्थानांतरित होने को कहा था। जिस समय अलमवासी के इस कैंप पर इज़रायल ने बमबारी की उस समय वहां 80,000 फिलिस्तीनी शरणार्थी थे।
सोशल मीडिया पर जो तस्वीरें प्रसारित हुई थीं उनसे पता चला कि ज्यादातर मारे जाने वालों के शरीर जलकर कोयला बन चुके थे और उनके चीथड़े उड़ गए थे। रिपोर्टों से पता चलता है कि इज़रायल ने इस हमले के लिए अमेरिकी फैक्ट्रियों में बने कई गाइडेड बमों का इस्तेमाल किया था। इनमें से हर बम का वजन आधा टन बताया गया है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जहां एक तरफ इस निर्दयता से निर्दोष फिलिस्तीनियों की हत्या की गई वहीं मोहम्मद अल-दीफ की मौत हुई या नहीं इस बारे में इज़रायल को कुछ पता ही नहीं चला। अलमवासी नरसंहार के कुछ ही घंटों बाद तेल अवीव की रक्षा मंत्रालय में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस के अनुसार खुद नेतन्याहू ने इस बात को स्वीकार किया कि मोहम्मद अल-दीफ की मौत हुई या नहीं इस बारे में पक्के तौर पर उसे पता नहीं है। इसका मतलब फिलिस्तीनियों की इतनी बड़ी संख्या को युद्ध के नियमों की जरा भी परवाह किए बिना ही इज़रायल ने उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
इस पर भी नेतन्याहू की ढिठाई देखिए कि उसने निर्दोषों की हत्या को जायज ठहराने के लिए यह कहने का साहस कर लिया कि हमास के नेताओं की हत्या की केवल कोशिश से भी दुनिया को यह संदेश जाएगा कि हमास के पास गिनती के कुछ ही दिन बचे हैं। नेतन्याहू अपने इस बयान के जरिए अपने मन का भ्रम दूर करना चाहते हैं। अगर वह इज़रायल द्वारा निशाना लगाकर शहीद किए जाने वाले फिलिस्तीनी नेताओं की सूची पर एक नजर भी डाल लेते तो उन्हें अंदाजा हो जाता कि हमास के राजनीतिक नेता अहमद यासीन और अब्दुलअज़ीज़ अल-रंतीसी और उनके मिलिट्री नेता याह्या अय्याश और सलाह शहादा की शहादत से इस आंदोलन की ताकत पर कोई असर तक नहीं पड़ा। इसके विपरीत हमास की लोकप्रियता में लगातार वृद्धि ही हुई और इससे जुड़े होकर फिलिस्तीन की आजादी का उद्देश्य हासिल करने वालों की संख्या बढ़ती ही चली गई।
आज हमास की वीरता, बहादुरी और रक्षा ताकत का यह आलम है कि दस महीने गुजर जाने के बावजूद भी इज़रायल जो इस क्षेत्र की सबसे शक्तिशाली सेना होने का घमंड करता है, अभी तक अपना कोई लक्ष्य पूरा नहीं कर पाया है और आम नागरिकों का नरसंहार करके पूरी दुनिया में अपनी बदनामी का सामान खुद पैदा कर चुका है। तो अब सवाल यह उठता है कि आखिर इतनी असफलताओं के बावजूद भी इज़रायल सालों से फिलिस्तीनी नेताओं की हत्या की नीति पर क्यों कायम है? इसका एक ही माकूल जवाब समझ में आता है कि इज़रायल के नेता अपने जनता को खुश करना चाहते हैं। वे अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए फिलिस्तीनी नेताओं की हत्या को एक ढाल के रूप में इस्तेमाल करते हैं चाहे परिणाम उलटे ही क्यों न हों। अलमवासी नरसंहार के तुरंत बाद ही नेतन्याहू की प्रेस कॉन्फ्रेंस का उद्देश्य भी इसके अलावा और कुछ नहीं था।
मोहम्मद अल-दीफ को मारने के लिए 13 जुलाई को जो हमला किया गया था वह उन पर किया जाने वाला अब तक का यह आठवां हमला था, लेकिन वे फिर भी जीवित हैं और अपना काम कर रहे हैं, जैसा कि हमास के एक नेता ने मीडिया को बताया। उन पर किए जाने वाले हर हमले में अनगिनत कीमती फिलिस्तीनी जानें खत्म की गई हैं, उनका भी हिसाब रखा जाना चाहिए और इज़रायल को उसकी सजा मिलनी चाहिए ताकि युद्ध के नियमों का पालन करने के लिए दुनिया के बाकी देशों को भी राजी किया जा सके। यह कोई पहला मामला नहीं है कि जब किसी फिलिस्तीनी नेता को मारने के कार्य में आम फिलिस्तीनियों को मारा गया है। ‘कतायब अल-क़सम’ के नेता सलाह शहादा को जब 2002 में शहीद किया गया था, तब भी 15 लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी थीं। शहादा के साथ उनकी पत्नी, पंद्रह वर्षीय बेटी और 8 अन्य बच्चों को भी शहीद कर दिया गया था। इस हमले के बाद बड़ा हंगामा मचा था। 27 इज़रायली पायलटों ने गाजा पर उड़ान भरकर नागरिकों पर बम बरसाने से मना कर दिया था।
जब पूरे मामले की जांच के लिए समिति का गठन किया गया तो बस इतना कहकर पल्ला झाड़ लिया गया कि इंटेलिजेंस की असफलता के कारण ऐसा हुआ था और अगर उन्हें पता होता कि आम नागरिक भी हमले के समय वहां मौजूद थे तो यह हमला नहीं किया जाता। लेकिन आज गाजा पर बमबारी करते समय तो इज़रायली सेना और वायुसेना की नैतिक स्थिति इतनी खराब हो गई है कि वे इस पर विरोध करने के बजाय आम नागरिकों की हत्या का जश्न मनाते नजर आते हैं। इज़रायल ने 2008 के बाद से ही अपनी युद्ध नीति में बदलाव कर लिया है। इस नीति के तहत इज़रायली सेना की सुरक्षा के लिए आम फिलिस्तीनी नागरिकों की हत्या जायज करार दी गई है और इस परइज़रायली सेना को कोई सजा भी नहीं दी जाएगी।
इसके साथ ही यह भी तय किया गया है कि हमास को रोकने के लिए जानबूझकर नागरिक ठिकानों को निशाना बनाया जा सकता है। इन्हीं नीतियों का परिणाम है कि इज़रायल लगातार आम नागरिकों का सामूहिक हत्या कर रहा है और इसे जायज ठहराने के लिए यह कह देता है कि वहां हमास के तत्व मौजूद थे। बावजूद इसके युद्ध के नियम के अनुसार इस प्रकार का हमला युद्ध अपराध और मानवता के खिलाफ अपराध की सूची में आता है। दरअसल इज़रायल का उद्देश्य यह है कि युद्ध के वैश्विक नियमों को बदल दिया जाए। इसराइल के अनुसार इसका एकमात्र तरीका यह है कि आम नागरिकों के ठिकानों को इतनी बार निशाना बनाया जाए कि युद्ध में वह एक सामान्य घटना बन जाए और दुनिया इसे स्वीकार करने लगे।
अगर सशस्त्र युद्ध का वह तरीका दुनिया में लोकप्रिय हो जाता है जिसे इज़रायल अपना रहा है, तो फिर सामूहिक नरसंहार को रोक पाना असंभव हो जाएगा। शायद यही कारण है कि दुनिया की मौजूदा कानूनी व्यवस्था अपनी स्थिति खो चुकी है क्योंकि वह गाज़ा में जारी नरसंहार को रोकने और इज़रायल पर लगाम लगाने में पूरी तरह से नाकाम रही है। आज अगर फ़िलिस्तीन के इंसानों की कोई कीमत नहीं रह गई है तो कल वे भी निशाने पर होंगे जो आज खामोश हैं। इज़रायल को मिली छूट से नुकसान सिर्फ फ़िलिस्तीन का नहीं, बल्कि पूरी मानवता का है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।