हम अब ग़ाज़ा में नहीं लड़ना चाहते: इज़रायली सैनिक
इज़रायली अख़बार ‘हारेट्ज़’ में छपी एक रिपोर्ट ने उस सच्चाई की झलक दी है जिसे दुनिया के सामने बार-बार छिपाया गया है। एक रिज़र्व इज़रायली सैनिक ने स्वीकार किया है कि, उसने ग़ाज़ा में की गई सैन्य कार्रवाइयों पर विश्वास खो दिया है और अब वह दोबारा ग़ाज़ा लौटने की हिम्मत नहीं रखता। उसने कहा: “हम ग़ाज़ा में कुछ हासिल नहीं कर रहे, सिवाय इसके कि हम खुद को बार-बार मौत के मुंह में धकेल रहे हैं।”
यह स्वीकारोक्ति केवल युद्ध की थकान नहीं, बल्कि उस ज़ुल्म का इक़रार है जो इज़रायली सेना ने ग़ाज़ा के निर्दोष फ़िलिस्तीनी नागरिकों पर ढाया है। यह वही ग़ाज़ा है जहाँ अस्पताल, स्कूल, मस्जिदें और रिहायशी इमारतें भी इज़रायली बमबारी से नहीं बच पाईं। हज़ारों औरतें, बच्चे और बुज़ुर्ग इस अंधाधुंध हमलों में शहीद हो चुके हैं।
सैनिक ने यह भी बताया कि सुरंगों के पास जाते वक़्त उसके दिल में इस बात का डर होता था कि, अगर खुफिया जानकारी ग़लत हुई, या अगर वहां बंधक हों तो? यह दिखाता है कि ग़ाज़ा में किए गए सैन्य अभियानों में कितनी बेरहमी और असमंजस शामिल है।
उसने यह भी खुलासा किया कि इज़रायली सेना अपने ही सैनिकों को चार महीने ज़्यादा जबरन सेवा के लिए मजबूर करती है, और जो इंकार करता है उसे जेल की धमकी और ‘देशद्रोही’ का तमग़ा दे दिया जाता है।
आज ग़ाज़ा जल रहा है, लेकिन उस आग में केवल बम नहीं गिरते, बल्कि इंसानियत भी हर पल दम तोड़ती है। ऐसे में एक ज़ायोनी सैनिक की ज़ुबान से निकला यह सच एक दस्तावेज़ बन जाना चाहिए। यह ज़ुल्म के खिलाफ एक गवाही है, और यह भी याद रखना चाहिए: जब अत्याचार करने वाला थकने लगे, तो समझो मज़लूम की आह असर कर चुकी है।
ग़ाज़ा अकेला नहीं है। हर इंसाफ़ पसंद इंसान आज उसके साथ खड़ा है। ग़ाज़ा नरसंहार का पूरी दुनियां में अगर सबसे ज़्यादा कहीं विरोध हुआ है तो वह यूरोपीय देशों में हुआ है। इस विरोध प्रदर्शन में सबसे ज़्यादा वहां के छात्रों और महिलाओं ने हिस्सा लिया है।

