सच छिपाने के लिए इज़रायल का नया हथकंडा: ग़ाज़ा में पत्रकारों पर रोक
ग़ाज़ा की धरती एक बार फिर इज़रायली अत्याचारों की साक्षी बन रही है, लेकिन इस बार इज़रायल ने एक नया हथकंडा अपनाया है — सच्चाई को दुनिया की नज़रों से छिपाने का। सोमवार को यूरोपीय मानवाधिकार संगठन Euro-Mediterranean Human Rights Monitor ने खुलासा किया कि तेल अवीव जानबूझकर अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों और स्वतंत्र जाँच समितियों को गाज़ा पट्टी में प्रवेश नहीं करने दे रहा है।
यह वही ग़ाज़ा पट्टी है, जहाँ हजारों बेगुनाहों की ज़िंदगी राख में बदल चुकी है, और अब इज़रायल चाहता है कि, कोई कैमरा, कोई क़लम इस विनाश की गवाही न दे सके।
रिपोर्ट के मुताबिक़, यह प्रतिबंध उस युद्ध-विराम समझौते की भी खुलेआम अवहेलना है जिसमें मीडिया को प्रवेश की अनुमति देने की बात साफ तौर पर दर्ज थी। लेकिन इज़रायल, जो हमेशा “लोकतंत्र” और “पारदर्शिता” की बातें करता है, अब वही पारदर्शिता से डर रहा है। क्योंकि उसे मालूम है कि, अगर ग़ाज़ा की असल तस्वीरें और सबूत दुनिया के सामने आए, तो उसके “सुरक्षा अभियान” की पोल खुल जाएगी।
स्पुतनिक की रिपोर्ट बताती है कि इज़रायल का यह कदम किसी “सुरक्षा कारण” से नहीं, बल्कि पूरी तरह साक्ष्य मिटाने की रणनीति का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट तक ने सरकार को पत्रकारों को प्रवेश देने से पहले “अतिरिक्त समय” दे दिया — मानो अदालत भी उस सच्चाई से डर रही हो जो कैमरे दिखा सकते हैं।
ग़ाज़ा में न तो अस्पताल बचे हैं, न स्कूल, न घर, और अब सच्चाई बताने वाले पत्रकार भी नहीं। यह वही इज़रायल है जो खुद को “मध्य पूर्व का एकमात्र लोकतंत्र” कहता है, लेकिन असल में एक संगठित मीडिया सेंसरशिप चला रहा है।
इज़रायल की यह कोशिश न सिर्फ़ मानवाधिकारों का उल्लंघन है बल्कि वैश्विक पत्रकारिता पर हमला भी है। ग़ाज़ा की खामोश गलियाँ शायद अभी कुछ नहीं कह रहीं, लेकिन हर टूटी दीवार, हर बच्चे की चीख इज़रायल के झूठ को हमेशा के लिए बेनकाब करती रहेगी।

