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सऊदी अरब , यमन और ईरान को कैसे साधेगा अमेरिका ? बाइडन की राह होगी जटिल

सऊदी अरब के अतिक्रमणकारी गठबंधन के आगे डट जाने वाले यमन जनांदोलन अंसारुल्लाह
को जब ट्रम्प प्रशासन ने वैश्विक आतंकवादी समूह घोषित किया था तो यमन ने ट्रम्प प्रशासन के फैसले की निंदा की थी।

अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने 20 जनवरी को हुए समारोह को संबोधित करते हुए कहा था
“साथियों, ये परीक्षा का समय है।”

राष्ट्रपति के तौर पर जो बाइडन और अमेरिका के सामने वाकई कई परीक्षाएं आना बाकी हैं। उनमें से सबसे कठिन परीक्षा ‘मध्य पूर्व’ की होगी।

बाइडन की टीम में ओबामा प्रशासन के पुराने लोग शामिल हैं जो उस क्षेत्र में नए नियमों के साथ पुराने मुद्दों को फिर से देखेंगे।

उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती वह नीतियां हैं, जिन्हें बनाने में उन्होंने ख़ुद अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन फ़िलहाल उनका रूप बदला हुआ है। हालाँकि कुछ लोग इसमें संभावनाएं और मौके भी देख रहे हैं।

क्या ओबामा प्रशासन से अलग रुख़ होगा ?
कार्नेगी एंडोमेंट फ़ॉर इंटरनेशनल पीस में नॉन-रेजिडेंट फ़ेलो किम गेटाज मानते हैं, “वो लोग इस बात से सीखेंगे कि मध्य पूर्व को लेकर ओबामा प्रशासन में क्या ग़लतियां हुई थीं। ग़लतियों से सीखकर या आज मध्य-पूर्व में अलग स्थितियाँ होने के कारण संभव है कि वो चीजों को अलग दिशा में ले जाएं।” अमेरिका की विदेश नीति में फ़िलहाल सबसे ऊपर ईरान की जगह होगी। वैश्विक शक्तियों ने 2015 में जो परमाणु समझौता किया था, वो आज मझधार में लटका पड़ा है क्योंकि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका को उस समझौते से अलग कर दिया था और ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए थे।
इसके अलावा, यमन का विनाशकारी युद्ध भी है, जिसका ओबामा ने शुरुआत में समर्थन किया था ताकि ईरान के साथ समझौते से नाराज़ सऊदी अरब को शांत किया जा सके।

पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प ने मई 2017 में अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए सऊदी अरब को चुना और 110 अरब डॉलर के अमेरिकी इतिहास के सबसे बड़े सैन्य सौदे पर हस्ताक्षर किए।

इससे अमेरिका की उस मध्य पूर्व नीति को बल मिला जिसमें सऊदी अरब की तरफ़ पूरी तरह झुकाव था और ईरान पर अधिकतम दबाव ! इससे अरब देशों और इस्राईल के बीच नए संबंधों का आगाज़ भी हुआ।

इस क्षेत्र को ओबामा प्रशासन के दौरान काम करने वाले कुछ पुराने लोगों की सक्रिय कूटनीति की ज़रूरत हो सकती है। अरब देशों का मानना था कि वो अमेरिकी नेतृत्व की अनुपस्थिति में इस क्षेत्र का राजनीतिक मानचित्र बदल सकते हैं। लेकिन, आधे दशक तक कोशिशों के बाद उन्होंने हाल ही में लीबिया, यमन, ईरान और यहाँ तक कि क़तर जैसे छोटे पड़ोसी के ख़िलाफ़ भी अपनी सीमाएं पहचान ली हैं।”

अमेरिका ईरान को कैसे साधेगा ?
अमेरिका के नए विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने सीनेट कंफ़र्मेशन हियरिंग के दौरान कहा था, “ये बहुत महत्वपूर्ण है कि हम अपने क्षेत्र में अपने सहयोगियों और साझेदारों के साथ उड़ान भरें, न कि ढलान पर जाएं। इसमें इस्राईल और खाड़ी देश भी शामिल हैं।”

एंटनी ब्लिंकेन लंबे समय से जो बाइडन और बराक ओबामा के वरिष्ठ सहयोगी रहे हैं। उन्होंने ज़ोर दिया कि एक नए समझौते से क्षेत्र में ईरान की “अस्थिर करने वाली गतिविधियों” और उसके बैलिस्टिक मिसाइल के विकास को साधा जा सकता है।

यूरोपीय संघ में विदेश संबंधों पर मध्य पूर्व एवं उत्तरी अफ़्रीका कार्यक्रम की डिप्टी डायरेक्टर एली जेरनमे कहती हैं, “आप देखेंगे कि विदेश नीति, परमाणु निरस्त्रीकरण और राजकोष की स्थिति पर बाइडन ने जिन लोगों को नियुक्त किया है, उनका परमाणु वार्ता या उसके अनुपालन में सीधा हस्तक्षेप रहा है।”

एली जेरनमे का कहना है, “बाइडन कैंप और ईरान दोनों का इस बात पर ज़ोर हो सकता है कि परमाणु समझौते को फिर से पटरी पर लाया जाए।” इसके लिए एक अमेरिकी विशेष दूत की नियुक्ति भी की जा सकती है। अमेरिका के परमाणु समझौते से अलग होने के बाद ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम से जुड़ी तय सीमाओं को पार किया है।

हाल ही में ईरान ने घोषणा की थी कि वो यूरेनियम को 20 प्रतिशत शुद्धता के लिए समृद्ध कर रहा है। यह परमाणु समझौते में तय सीमा से कहीं ज़्यादा है, जिससे अमेरिका और यूरोपीय देशों की चिंताएं बढ़ गई हैं।

ईरान के नेता लगातार ये कहते रहे हैं कि वो समझौते पर वापस लौट सकते हैं, अगर अमेरिका भी ऐसा ही करे। हालाँकि, पिछले चार वर्षों में पैदा हुई तल्ख़ी ने ईरान में अमेरिका के साथ संबंधों को लेकर संदेह और गहरे कर दिए हैं।

सऊदी अरब और मानवाधिकारों का हनन
नए अमेरिकी प्रशासन को देश के अंदर भी टकराव का सामना करना पड़ेगा। विदेश नीति के दिग्गजों वाली अमेरिका की नई सरकार पहले ही कह चुकी है कि वो ज़्यादा भागदारी चाहती है।

मध्य पूर्व में उसके सामने सिर्फ़ ईरान के साथ परमाणु समझौते का मसला नहीं है बल्कि यमन में सऊदी युद्ध को अमेरिकी सेना का समर्थन रोकना, इस्राईल और अरब देशों में शांतिवार्ता, सऊदी अरब की मानवाधिकार नीति को लेकर चिंताएं (विरोधियों को हिरासत में लेना और पत्रकार जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या सहित) जैसे मुद्दे भी अमेरिकी सरकार के सामने खड़े हैं।

बाइडन प्रशासन में डायरेक्टर ऑफ़ नेशनल इंटेलिजेंस, एवरिल हेन्स से जब उनकी कंफर्मेशन हियरिंग में पूछा गया कि क्या वो ट्रंप प्रशासन की ‘अराजकता’ को ख़त्म करेंगी और जमाल ख़ाशोज्जी की हत्या के मामले में एक पारदर्शी रिपोर्ट सौपेंगी?

तब उन्होंने जवाब दिया, “हां, बिल्कुल, हम क़ानून का पालन करेंगे।”

लेकिन सऊदी लेखक और विश्लेषक अली शहाबी कहते हैं, “चाहे वो सीआईए हो या विदेश मंत्रालय, असलियत ये है कि मूलभूत तौर पर वो ये मानते हैं कि इस क्षेत्र में कुछ भी करने के लिए सऊदी अरब बेहद अहम है।”
यमन में युद्ध को समाप्त करने समेत कई साझा प्राथमिकताएं भी हैं। लेकिन, ये अमेरिका के लिए बिल्कुल भी आसान नहीं होने वाला है।

इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप के साथ यमन में वरिष्ठ विश्लेषक पीटर सैलिस्बरी सावधान करते हैं, “ये इतना आसान नहीं है कि बस इसे सऊदी अरब को सैन्य सहायता रोककर सुलझा दिया जाए। अगर अमेरिका वहाँ शांति चाहता है तो उसे एक कूटनीतिक भूमिका से कहीं ज़्यादा सक्रिय होना होगा।”

अपने एजेंडे में मानवाधिकारों को रखने वाले प्रशासन के लिए कूटनीति आसान नहीं होगी। इसका मतलब है कि सऊदी अरब से लेकर ईरान और मिस्र के साथ बातचीत मुश्किल होने वाली है। बातचीत किसी कार्रवाई में बदलती है या नहीं इसे लोग चिंता और आशंका के साथ देखेंगे।

वहीं, कुछ जानकारों का ये भी मानना है कि भले ही ये अमेरिका के लिए चुनौती भरा होने वाला है लेकिन ये दुनिया में और मध्य पूर्व में अमेरिका की भूमिका को लेकर फिर से सोचने का एक मौका भी है।

सोर्स: बीबीसी हिंदी

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