क्या ट्रंप ग़ाज़ा में “नकबा’ का इतिहास दोहराना चाहते हैं??
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने असंतुलित व्यक्तित्व और अव्यावहारिक विचारों के लिए जाने जाते हैं। वे एकमात्र ऐसे अमेरिकी राष्ट्रपति हैं जो किसी भी मुद्दे पर पहले बोलते हैं और बाद में अपने बयानों के परिणामों पर विचार करते हैं। जब उन्हें समझ में आता है कि, वे केवल रियल एस्टेट के व्यापारी ही नहीं, बल्कि एकमात्र महाशक्ति देश के सबसे शक्तिशाली राष्ट्रपति भी हैं, तब वे अपने ही बयानों से एक-एक करके पीछे हटने लगते हैं। लेकिन तब तक वे अपने व्यक्तित्व और पद दोनों की प्रतिष्ठा को गंभीर रूप से क्षति पहुंचा चुके होते हैं।
डोनाल्ड ट्रंप का यह व्यवहार उनके दूसरे कार्यकाल की शुरुआत के पहले दिन से ही देखा जा सकता है। उन्होंने अब तक पूरी दुनिया में जो उथल-पुथल मचाई है, उसकी कोई समझदारी नजर नहीं आती। कभी वे जलवायु परिवर्तन से संबंधित पेरिस समझौते से बाहर निकलने की घोषणा करते हैं, तो कभी संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद को अलविदा कहते हैं और साथ ही यह भी घोषणा कर देते हैं कि फिलिस्तीनियों की मानवीय जरूरतों की देखभाल करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNRWA की फंडिंग रोक रहे हैं और भविष्य में कभी भी इसे फंड नहीं देंगे।
वे अपने पड़ोसी देश कनाडा और मैक्सिको को धमकी देते हैं और अमेरिका में प्रवेश करने वाले उनके व्यापारिक सामान पर भारी टैक्स लगाने की घोषणा करके तनाव का माहौल बना देते हैं। इसके बाद तुरंत ही इन देशों के नेताओं से फोन पर बात करके इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इन फैसलों को लागू करने में कुछ समय के लिए देरी करना उचित होगा। यही हाल अवैध तरीके से अमेरिका में प्रवेश करने वाले प्रवासियों के मामले में भी देखने को मिलता है। अवैध तरीके से अमेरिका में मौजूद इन प्रवासियों को जब वापस उनके देशों में भेजने की बात आती है, तो इस मुद्दे पर भी उनका रवैया और नीति दोनों ही अमानवीय होने के साथ-साथ अमेरिकी विदेश नीति के स्तर पर बहुत हद तक अव्यावहारिक और अवैध साबित होती है।
यही कारण है कि मैक्सिको, कोलंबिया और इक्वाडोर जैसे देशों ने ट्रम्प के इस कदम की कड़ी निंदा की कि उनके नागरिकों को अमेरिकी सैन्य विमानों में जंजीरों से बांधकर वापस भेजा जाए। इस विरोध का असर भी हुआ और कोलंबिया ने अपने नागरिकों को अमेरिकी सैन्य विमान में जंजीरों से बंधी हुई अवस्था में स्वीकार करने से इनकार कर दिया और इसके बजाय अपने विशेष विमानों में उन्हें वापस लाने का फैसला किया और अपने नागरिकों की प्रतिष्ठा बचाई। इसके अलावा, कोलंबिया के राष्ट्रपति का यह बयान भी सामने आया कि अच्छी जिंदगी की तलाश में पलायन करना कोई अपराध नहीं है। कोलंबिया की तरह ही मैक्सिको ने भी अमेरिका के उस सैन्य विमान को, जो उसके नागरिकों को लेकर आ रहा था, अपनी जमीन पर उतरने नहीं दिया क्योंकि यह उसकी संप्रभुता के लिए अपमानजनक था।
ऊपर की पंक्तियों में डोनाल्ड ट्रंप के असंतुलित सोच वाले राष्ट्रपति होने की केवल कुछ झलकियाँ हैं। यदि ट्रंप के उन सभी राष्ट्रपति आदेशों का विस्तृत विश्लेषण किया जाए जो उन्होंने अब तक अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में जारी किए हैं, तो स्पष्ट रूप से समझ आ जाएगा कि वे अपने देश की शक्ति का केवल गैर-जिम्मेदाराना तरीके से उपयोग करना जानते हैं। उन्हें उन कानूनी संस्थानों और सिद्धांतों की कोई चिंता नहीं है जिन्हें बनाने में स्वयं अमेरिका की बड़ी भूमिका रही है। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के बाद की जो दुनिया बनी, उसके सभी घटकों को तैयार करने और वैश्विक व्यवस्था को नया रूप देने में अमेरिका की भूमिका मूलभूत और महत्वपूर्ण रही है।
लेकिन ट्रंप, जिन्हें अपनी महानता का मिथ्या सपना हर दिन इतना परेशान रखता है कि वे उस वैश्विक नक्शे से खुश नहीं हैं जो उन्हें ऐतिहासिक रूप से विरासत में मिला है। इसलिए वे उस नक्शे को ही बदल देना चाहते हैं जो उनके मन के अनुकूल नहीं है। लेकिन उनकी समस्या यह है कि वे कागज पर बने नक्शे और वास्तविकता की जमीन पर मौजूद कड़वी सच्चाइयों के बीच अंतर करना नहीं जानते। वे जीवन भर रियल एस्टेट के बड़े व्यापारी रहे हैं और इसलिए केवल होटलों, रेस्तरां और मनोरंजन स्थलों के महत्व को समझते हैं जहाँ लोग अपनी थकी हुई जिंदगी का बोझ हल्का करने के लिए अस्थायी रूप से आते हैं और फिर अपनी थकान को हल्का करके चले जाते हैं।
ग़ाज़ावासियों को मिस्र और जॉर्डन में बसाने की योजना
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने फिलिस्तीन की जमीन को भी लगभग उसी नजरिए से देखना शुरू कर दिया है। वे समझते हैं कि अमेरिकी शक्ति के बल पर मानव बस्तियों को बहुत आसानी से उजाड़ा जा सकता है और इतिहास को पलक झपकते ही मिटाया जा सकता है। यही कारण है कि उन्होंने इज़रायल के प्रधानमंत्री और ग़ाज़ा में युद्ध अपराधों के कथित दोषी बेंजामिन नेतन्याहू के अमेरिका दौरे के अवसर पर उनकी मौजूदगी में यह घोषणा कर दी कि वे ग़ाज़ा पर कब्जा करके उसे एक सुंदर पर्यटन स्थल में बदल देंगे और वहाँ के लोगों को निकालकर या तो मिस्र और जॉर्डन में बसाएंगे या फिर अन्य पड़ोसी देशों में उन्हें डाल देंगे।
ट्रंप की निगाह में फिलिस्तीनी एक आसान शिकार
शायद ट्रंप की नजर में फिलिस्तीन के गौरवशाली लोगों की स्थिति मानो किसी निर्जीव सामान की तरह है जिसे उनकी इच्छा के विरुद्ध वे जहाँ चाहें स्थानांतरित कर दें। मानो वे ट्रंप की संपत्ति वाली जमीन पर मौजूद कोई कचरा हों जिसे साफ करके जमीन को समतल किया जाना जरूरी हो ताकि उसकी जगह एक ऐसा सुंदर मनोरंजन स्थल तैयार किया जाए जहाँ दुनिया भर के धनाढ्य लोग इकट्ठा होकर आनंद ले सकें। ट्रंप ने शायद फिलिस्तीनियों को एक आसान शिकार समझ लिया है जिसे आसानी से निगला जा सकता है। या फिर उनके किसी जायोनी सलाहकार ने यह सलाह दे दी है कि फिलिस्तीनियों को डरा-धमका कर या उनका नरसंहार करके आज भी उनकी जमीनों से उसी तरह निकाला जा सकता है जिस तरह जायोनी अपराधियों ने 1948 में फिलिस्तीनियों को उनके घरों और जमीनों से निकालकर उन पर जायोनी राज्य इजरायल की स्थापना की थी।
इस नरसंहार के परिणामस्वरूप लगभग 7 लाख फिलिस्तीनी 1948 में बेघर कर दिए गए थे और उन्हें लेबनान, जॉर्डन और मिस्र व सीरिया जैसे पड़ोसी देशों में शरणार्थी जीवन बिताने के लिए मजबूर किया गया था जहाँ से वे आज तक वापस अपने घरों और खेतों में नहीं लौट सके हैं। लेकिन वे इस उम्मीद में आज भी हैं कि एक दिन ऐसा आएगा जब वे अपने घरों को वापस जाएंगे।
यह घटना फिलिस्तीन के इतिहास में नकबा के नाम से प्रसिद्ध है। नकबा अरबी का ऐसा शब्द है जिसमें वंचना और विनाश के सभी पहलू शामिल हैं। फिलिस्तीनियों को आज भी अफसोस है कि उन्होंने अनुभवहीनता के कारण ऐसा कदम क्यों उठाया कि वे अपने घरों को छोड़ बैठे। उनमें यह भावना गहराई से पाई जाती है कि वे भविष्य में ऐसी किसी गलती का दोहराव नहीं करेंगे जिसकी सजा में उन्हें अपनी जमीन, संस्कृति और शानदार इतिहास से वंचित होना पड़े। वे इस बात को तो स्वीकार करेंगे कि वे अपनी ही जमीन पर शहीद होकर वहीं दफन हो जाएं, लेकिन यह किसी भी हालत में उन्हें स्वीकार नहीं होगा कि वे फिर से अपनी जमीनों और घर-बार को छोड़कर कहीं और चले जाएं। यही कारण है कि वे नकबा की कड़वी यादों को आज भी संजोए हुए हैं और अपने उन घरों की चाबियों को सहेज कर रखे हुए हैं जिन्हें छोड़ने के लिए वे 1948 में मजबूर हुए थे।
यदि ट्रंप ने अपने सलाहकारों की सूची में मध्य पूर्व और विशेष रूप से फिलिस्तीन के इतिहास पर गहरी नजर रखने वाले किसी गंभीर इतिहासकार को जगह दी होती तो वह उन्हें समझाता कि फिलिस्तीनियों को ग़ाज़ा से बाहर निकालने का सपना छोड़ दें, वरना परिणाम यह निकलेगा कि जिस अमेरिका की महानता की बहाली का सपना वे अपने मन में लेकर दोबारा राष्ट्रपति पद पर बैठे हैं, कहीं उसकी शक्ति के पतन का ही बिंदु ग़ाज़ा के प्रति अमेरिकी नीति साबित न हो जाए।
ट्रंप ने शायद कभी इस पहलू पर विचार ही नहीं किया कि, जो राष्ट्र पिछले लगभग एक सदी से अपने अधिकारों की वापसी और अपनी जमीन की आजादी के लिए लगातार संघर्षरत है और कभी एक दिन के लिए भी उसके साहस और दृढ़ संकल्प में कमी नहीं आई, वह भला आज अपनी जमीनों से कैसे हाथ धो बैठेगा? यह मामला इस बात का है ही नहीं कि मिस्र और जॉर्डन फिलिस्तीनियों को अपनी जमीनों में बसाने के लिए तैयार होंगे या नहीं।
असली मुद्दा यह है कि क्या फिलिस्तीनी कभी भी इस बात को एक पल के लिए भी स्वीकार करेंगे कि उनकी ज़मीन, उनकी हज़ारों साल पुरानी इतिहास, उनकी संस्कृति और उनके धर्म व मज़हब के प्रतीकों से उन्हें वंचित कर दिया जाए? ट्रंप शायद यह भी नहीं समझ पाए कि फिलिस्तीनी राष्ट्र एक गौरवशाली और बहादुर राष्ट्र है जो अपने अधिकारों से किसी भी सूरत में समझौता नहीं करेगा। उन्हें इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि अभी हाल ही में ग़ाज़ा-युद्ध ताज़ा वाकया है, जिसमें दस लाख से अधिक यहूदी ‘अरज़-ए-मौऊद’ (इज़रायल) को छोड़कर भाग गए क्योंकि उन्हें वह शांतिपूर्ण जीवन नहीं मिला जिसका सपना देखकर वे इज़रायलआए थे।
इसके विपरीत, फिलिस्तीनियों ने न केवल अपनी ज़मीन को छोड़ना स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसकी रक्षा के लिए पश्चिमी देशों से वापस लौट आए। अगर ट्रंप इस ज़िद पर आ भी जाएं कि हर हाल में फिलिस्तीनियों को उनकी ज़मीनों से निकाल दिया जाए, तो इस बात की पूरी संभावना है कि अमेरिकी ताकत का सूरज भी ग़ाज़ा के दलदल में हमेशा के लिए डूब जाएगा, क्योंकि फिलिस्तीनियों को उनकी ज़मीनों से निकालने के लिए ट्रंप को ‘नकबा-ए-सानी’ (दूसरी त्रासदी) जैसे अपराध करने पड़ेगे। ज़ाहिर है कि अपनी सारी साम्राज्यवादी ताकतों के बावजूद अमेरिका यह कदापि नहीं कर सकता। सबक लेने के लिए ज़रूरी है कि ट्रंप, ग़ाज़ा को मनोरंजन स्थल में बदलने से पहले वियतनाम में अमेरिकी हार के इतिहास का फिर से अध्ययन कर लें।
वियतनाम में जब युद्ध-विराम का आखिरी दिन आया, तो एक अमेरिकी अधिकारी की बातचीत उसके वियतनामी समकक्ष से हो रही थी। अमेरिकी अधिकारी ने वियतनामी अधिकारी से कहा कि हम किसी भी लड़ाई में तुमसे हार नहीं सकते। वियतनामी अधिकारी ने जवाब देते हुए कहा कि हो सकता है कि जो तुम कह रहे हो वह सच हो, लेकिन तुम इस सच्चाई से आँखें नहीं मूंद सकते कि जब कल का सूरज निकलेगा, तो तुम्हें हमारी ज़मीन से निकलना होगा, जबकि यहाँ सिर्फ हम ही रह जाएंगे। अमेरिकियों और इजरायलियों को भी यह याद रखना चाहिए कि फिलिस्तीन की ज़मीन से उन्हें ही निकलना होगा, क्योंकि वे असली मालिक नहीं हैं। फिलिस्तीन की ज़मीन फिलिस्तीनियों की ही रहेगी। बाकी सब कुछ सिर्फ अरब के रेगिस्तान पर खींची हुई बस लकीरें हैं, जिनका मिट जाना ही क़िस्मत में होगा, जब हवाएं फिलिस्तीन के हक़ में चलनी शुरू होंगी।”
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