ग़ाज़ा, सूडान संकट के बीच वॉशिंगटन और सऊदी के बीच कूटनीतिक संपर्क
अमेरिका और सऊदी अरब, जो खुद को “स्थिरता के रक्षक” बताते नहीं थकते, एक बार फिर दिखा रहे हैं कि असल में उनकी प्राथमिकता मानवता नहीं, बल्कि शक्ति और मुनाफा है। सऊदी युवराज मोहम्मद बिन सलमान की आगामी वॉशिंगटन यात्रा से पहले दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच हुई बातचीत भी इसी पुरानी पटकथा का हिस्सा है—जहां पर्दे पर “शांति की चिंता” होती है और परदे के पीछे हथियारों की डील और रणनीतिक सौदेबाजी।
अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो और सऊदी मंत्री फैसल बिन फरहान की बातचीत में ग़ाज़ा, सूडान और दक्षिण लेबनान की तबाही पर चर्चा ज़रूर हुई, लेकिन किसी ने यह नहीं पूछा कि, इन संकटों के पीछे किसका हाथ है। ग़ाज़ा में दो साल से जारी नरसंहार में अमेरिका खुलेआम इज़रायल का सबसे बड़ा समर्थक है, जबकि सऊदी अरब चुपचाप अपने पश्चिमी “साझेदारों” से व्यापार बढ़ा रहा है। दोनों ही देश “स्थिरता” के नाम पर उन्हीं आगों को हवा देते हैं जिनकी लपटों में आम लोग जलते हैं।
सूडान में झड़पें हों या लेबनान में इज़रायली हमले—अमेरिका की नीति वही है: अपनी सैन्य मौजूदगी कायम रखना और संसाधनों पर नियंत्रण बनाए रखना। सऊदी अरब इस खेल में अपनी भूमिका जानता है—तेल, हथियार और सत्ता का संतुलन बनाए रखना ताकि उसके सिंहासन पर कोई सवाल न उठे।
अब युवराज की यह यात्रा “रक्षा संधि” और “रणनीतिक सहयोग” के नाम पर होने वाली नई सौदेबाज़ी का मंच है। असल में यह दो ऐसी ताकतों का गठबंधन है जो मानवाधिकारों की बात केवल तब करती हैं जब उनके हित सुरक्षित हों। पश्चिम एशिया में शांति का नारा देने वाले ये दोनों देश खुद हिंसा, हस्तक्षेप और स्वार्थ के सबसे बड़े स्रोत हैं। उनके बीच की हर नई मुस्कान किसी न किसी नई त्रासदी की शुरुआत होती है।

