फ़िलिस्तीन पर अमेरिका की दोहरी नीति बेनक़ाब
यरुशलम (अल-क़ुद्स) में दिए एक इंटरव्यू में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के करीबी और नियुक्त राजदूत माइक हकाबी ने साफ़ तौर पर कहा कि फिलिस्तीनी राज्य की संभावना अब नहीं बची है। उन्होंने कहा, “जब तक फिलिस्तीनियों की संस्कृति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं होता, तब तक उनके लिए अलग राज्य की कोई गुंजाइश नहीं है, और यह परिवर्तन शायद हमारी ज़िंदगी में कभी नहीं होगा।”
यह बयान न केवल फिलिस्तीनी अधिकारों के प्रति अमेरिकी उपेक्षा को दर्शाता है, बल्कि यह भी साबित करता है कि अमेरिका अब दो-राष्ट्र सिद्धांत से भी पीछे हट चुका है। वह सिद्धांत जिसे दशकों से अमेरिका खुद शांति प्रक्रिया का आधार बताता रहा है।
सबसे चौंकाने वाली बात यह रही कि हकाबी ने सुझाव दिया कि फिलिस्तीनियों को कोई और मुस्लिम देश अपनी ज़मीन दे दे, बजाय इसके कि इज़रायल अपने अवैध क़ब्ज़े वाले वेस्ट बैंक (जिसे हकाबी ने यहूदी धार्मिक नाम “यहूदा और सामरिया” कहा) से पीछे हटे। यह बयान उस ज़हरीली सोच को उजागर करता है जो फिलिस्तीनियों को अपनी ज़मीन का हकदार ही नहीं मानती, बल्कि उन्हें निर्वासित करने की मंशा रखती है।
आज वेस्ट बैंक में 30 लाख से अधिक फिलिस्तीनी, यहूदी बस्तियों, सैन्य चेकपोस्ट और हर रोज़ बढ़ती हिंसा के साये में जीने को मजबूर हैं। इज़रायल की ओर से बस्तियों का विस्तार, फ़िलिस्तीनी प्रशासन को कमजोर करना और बस्तियों से हो रही हिंसा पर चुप्पी। ये सब मिलकर फिलिस्तीनी राज्य की राह को नामुमकिन बना चुके हैं।
हकाबी का यह बयान अमेरिका की उस दोहरी नीति को उजागर करता है जो एक तरफ लोकतंत्र और मानवाधिकारों की बात करती है, और दूसरी तरफ एक पूरी आबादी के बुनियादी अधिकारों का मज़ाक बनाती है। यह अब साफ हो गया है कि वॉशिंगटन की नज़र में फिलिस्तीन कोई “राज्य” नहीं, बल्कि एक बोझ है, जिसे या तो भूगोल से मिटा दिया जाए या इतिहास के हवाले कर दिया जाए।
लेकिन शायद ही कोई देश फिलिस्तीन को मिटा सके। क्योंकि यह लड़ाई ज़मीन की नहीं, ज़मीर की है। फ़िलिस्तीनी दशकों से अपनी मातृभूमि के लिए शहादत दे रहे हैं। उन्हें शहीद तो किया जा सकता है लेकिन, उनको उनकी ज़मीन से बेदखल नहीं किया जा सकता है।

