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सियासत में बगावत का इतिहास, बहुत पुराना है

सियासत में बगावत का इतिहास, बहुत पुराना है

बगावतों का इतिहास हर राज्य में है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक। बगावत की बयार अक्सर चलती है किन्तु आंधी में यदा-कदा तब्दील हो पाती है। बगावत जब आंधी में तब्दील होती है तब अनेक अवसरों पर राजनीतिक दलों का विभाजन भी होता है। चुनावों के समय की जाने वाली बगावतों का बहुत आंशिक असर होता है लेकिन यदि बगावत संगठित रूप से होती है तो राजनीतिक परिदृश्य बदलने में ज़्यादा देर नहीं लगती। इन सबके बावजूद कुछ बगावतें ऐसी होती हैं जिनका वजूद चुनाव समाप्त होते ही ख़त्म हो जाता है।

सबसे ज्यादा बग़ावत का दंश कांग्रेस ने सहा है। भाजपा में भी अनेक बग़ावतें हुई हैं लेकिन भाजपा छोड़कर जिन नेताओं ने भी अपने दल बनाये वे ज्यादा दिन तक अपना वजूद बचाकर नहीं रख सके। वामपंथी दलों में भी एक -दो अवसरों पर बगावत हुई, समाजवादी भी इस बीमारी के पुराने रोगी हैं। सियासत में बगावत का पुराना इतिहास है।

फ़िलहाल बात करते हैं मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम की क्योंकि इन्हीं राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। पांच राज्यों के लिए विधानसभा चुनावों के प्रत्याशियों के नामों की घोषणा के साथ ही सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में बगावत के स्वर सुनाई देते हैं। इसे लेकर नुक्ताचीनी करने का कोई अर्थ नहीं है। मिजोरम विधानसभा के चुनावों को लेकर भाजपा और कांग्रेस ज्यादा गंभीर नहीं हैं।

मिजोरम विधानसभा के चुनाव एक छोटी-मोटी नगर निगम के चुनाव जैसे हैं। फिर मिजोरम में भाजपा का कुछ है भी नहीं और हाल की मणिपुर की घटना ने भाजपा के लिए बची-खुची गुंजाइश भी समाप्त कर दी है। कमोवेश यही दशा भाजपा की तेलंगाना में है। हालाँकि तेलंगाना में भाजपा ने थोड़ी-बहुत उछलकूद की भी। चुनावों की औपचारिक घोषणा के पहले प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह तेलंगाना जाकर केसीआर को हड़का कर भी आये किन्तु बात बनी नहीं।

तेलंगाना में मुकाबला कांग्रेस और मौजूदा सत्तारूढ़ दल के साथ है। इसलिए यहां बगावत की कोई समस्या है नहीं। भाजपा का पूरा ध्यान मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ पर है। इन तीनों राज्यों में भाजपा विधानसभा चुनावों की औपचारिक घोषणा के पहले ही बग़ावत शुरू हो गयी थी। मध्यप्रदेश में तो भाजपा में सबसे ज़्यादा बगावत हुई। विधायक से लेकर स्थानीय स्तर के नेता तक भाजपा छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गये।

पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के पुत्र दीपक जोशी से शुरू हुई ये बगावत आज भी जारी है। भाजपा प्रत्याशियों की हर नई सूची बगावत की ख़बर लेकर आती है। लेकिन भाजपा की बगावत का स्वरूप असंगठित है इसलिए पार्टी में विभाजन का तो कोई ख़तरा नहीं है किन्तु इस बगावत की वजह से पार्टी की स्थिति कमजोर अवश्य हो रही है।

भाजपा ने मध्य प्रदेश में जिन तीन केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों के अलावा पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव को विधानसभा चुनाव में उतारा है वे सब बेमन से चुनाव लड़ रहे हैं। ये दसों नेता चुनाव लड़वाना चाहते थे अपने बच्चों को, अपने समर्थकों को लेकिन पार्टी हाई कमान ने किसी की एक नहीं सुनी। इन दस नेताओं के आने से भाजपा को कम से कम तीस सीटों पर जीत की उम्मीद है लेकिन हो उलटा रहा है। ये दसों की दस सीटें भी अब असुरक्षित दिखने लगी हैं।

मध्य प्रदेश में कांग्रेस की पहली सूची आने के बाद बगावत की इक्का-दुक्का ख़बर है लेकिन कांग्रेस को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। कांग्रेस ने बहुत ठोक-बजाकर प्रत्याशियों का चयन किया है। ग्वालियर में एकमात्र कांग्रेसी केदार सिंह कंसाना ने टिकट न मिलने पर पार्टी छोड़ी है। वे ज़रूर कांग्रेस की एक सीट का गणित ख़राब कर सकते हैं लेकिन बाकी कहीं कोई खरखसा नहीं है।

कांग्रेस ने छह बार के विधायक केपी सिंह को अपनी सीट बदलने की सुविधा भी दी। वे अब पिछोर की जगह शिवपुरी से चुनाव लड़ेंगे। पहले भाजपा की ओर से शिवपुरी से यशोधरा राजे चुनाव लड़ती थीं लेकिन इस बार वे भी नाखुश भाजपाइयों की सूची में शामिल हो गयी हैं। वे अपने बेटे के लिए टिकट चाहती थीं किन्तु पार्टी ने उनकी सुनी नहीं।

भाजपा की चार सूचियां आने के बाद कांग्रेस की पहली सूची आने से कांग्रेस को फैसला करने में आसानी हुई। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चुनावों में उलझने के लिए एक अराजनीतिक व्यक्ति को अपना प्रत्याशी बनाया जो छोटे परदे का हनुमान है। बुधनी सीट से कांग्रेस के इस फ़ैसले में कोई गंभीरता तो नज़र नहीं आती किन्तु ये प्रयोग शिवराज सिंह चौहान की नाव पार भी लगा सकता है और डुबो भी सकता है।

राजस्थान में भी भाजपा के समाने बगावत एक गंभीर समस्या है। यहां वसुंधरा राजे भाजपा के लिए सबसे बड़ी समस्या है। भाजपा वसुंधरा राजे से छुटकारा चाहती है लेकिन वे भाजपा छोड़ना नहीं चाहतीं। वे राजस्थान की उमा भारती भी नहीं बनना चाहतीं अर्थात पार्टी को तोड़ना भी नहीं चाहतीं किन्तु उनके पार्टी में रहने से भी भाजपा को कोई लाभ नहीं होने वाला क्योंकि वे नाराज हैं।

वे महिला भी हैं और उनके पास राजहठ भी है जो सीधे प्रधानमंत्री और शाह की जोड़ी को भारी पड़ सकता है। राजस्थान में भी भाजपा के कमजोर किले की किलेबंदी के लिए सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों को मैदान में उतारा गया है। ये सब मिलकर वसुंधरा राजे की वजह से होने वाले नुक़सान की कितनी भरपाई कर पाएंगे, कहना कठिन है।

छत्तीसगढ़ में भाजपा के मुकाबले कांग्रेस में बगावत होना चाहिए लेकिन ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा। यहां कांग्रेस सतर्क है। उसे पता है कि सत्ताप्रतिष्ठान के खिलाफ जनता की स्वाभाविक नाराजगी आमतौर पर जैसी होती है वैसी छत्तीसगढ़ में है नहीं।छत्तीसगढ़ में भाजपा में भी बगावत मुमकिन है क्योंकि यहां आज भी भाजपा परिवार की बैशाखी लेकर चलने की कोशिश कर रही है। मध्यप्रदेश में परिवारवाद का सहारा भाजपा के बजाय कांग्रेस ने ज्यादा लिया। मध्यप्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भाई और बेटे तक को टिकट मिल गया किन्तु बाक़ी देखते रह गए।

अतीत में झाँकें तो आप पाएंगे कि कांग्रेस से बगावत कर बनी एनसीपी हो या टीएमसी, कम से कम राज्य की सत्ता में तो हैं लेकिन भाजपा से बगावत कर बनी उमा भारती की पार्टी का, केशूभाई की पार्टी का कोई अतापता नहीं है। समाजवादियों के विभाजन से जन्मी जेडीयू जरूर बिहार में गठबंधन की सरकार का हिस्सा है। शिवसेना से टूटी शिवसेना भी महाराष्ट्र में सत्ता के साथ है लेकिन भाजपा से अलग हुए लोग अपना दलबल छोड़छाड़कर भाजपा में वापस लौट आये। टूटी तो बसपा और समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी भी किन्तु इन दलों से अलग हुए लोग भी अपना दल चला नहीं चला पाए।अब देखना ये है कि आने वाले दिनों में भाजपा, कांग्रेस अपने आपको बगावत के इस जहर से कितना अक्षुण रख पाते हैं?

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