राज्य सरकारें अंतरधार्मिक शादियों में दखल नहीं दे सकतीं: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि दो व्यस्क लोग आपसी सहमति से विवाह करते हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, तो राज्य सरकारों या किसी भी संस्था को उनके निजी फैसलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा कि संविधान हर नागरिक को अपनी पसंद के जीवनसाथी को चुनने की स्वतंत्रता देता है, और यह व्यक्तिगत आज़ादी का मामला है।
यह टिप्पणी उस मामले में आई जब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने एक मुस्लिम युवक को ज़मानत देने से इनकार कर दिया था, जिसने एक हिंदू महिला से विवाह किया था और इस कारण उसे छह महीने जेल में रहना पड़ा। यह विवाह दोनों परिवारों की सहमति से हुआ था, और युवक ने शादी के अगले ही दिन एक हलफनामा भी दिया था, जिसमें लिखा था कि वह अपनी पत्नी पर धर्म परिवर्तन का कोई दबाव नहीं बनाएगा और वह अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र रहेगी।
लेकिन दक्षिणपंथी संगठनों की आपत्ति के चलते स्थानीय पुलिस में मामला दर्ज कर लिया गया और युवक को गिरफ्तार कर लिया गया। सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने ज़मानत देते हुए टिप्पणी की कि जब शादी परिवारों की रज़ामंदी से हुई है और दोनों व्यस्क हैं, तो राज्य को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्य को ऐसे मामलों में अपनी “नाक नहीं घुसानी चाहिए” क्योंकि यह दो व्यस्कों के निजी जीवन का हिस्सा है। यह फैसला भारत में सामाजिक आरोपों के माहौल में एक मजबूत कानूनी संकेत है कि संविधान व्यस्कों की निजी आज़ादी की रक्षा करता है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों।

