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मुसलमानों का राजनीतिक पतन???

मुसलमानों का राजनीतिक पतन ???

अगर मैं आपसे ये सवाल पूछो कि कोई समाज अगर पिछड़ा हो और लगातार हाशिये पर धकेला जा रहा हो तो उसके उत्थान के लिए क्या किया जायेगा? इसी सवाल को थोड़ा और बड़ा करते है कि अगर कोई समुदाय शिक्षा, कारोबार और राजनीती हर जगह पिछड़ेपन की एक मिसाल हो तो उसको मुख्यधारा में वापस कैसे लाया जायेगा?

मुझे उस समुदाय का नाम बताने की जरूरत नहीं है आप सभी बखूबी वाकिफ हैं। मुसलमान समुदाय जिसको सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्र आयोग, मंडल कमीशन सभी ने एक स्वर में भारत का सबसे पिछड़ा हुआ समुदाय माना है। इनके मुताबिक मुसलमानों की हालत तो दलितों से भी बदतर है। शायद आप लोग भी सोचते होंगे आखिर मुसलमान इस देश में इतना पिछड़ा कैसे हो गया है तो ये जान लीजिये कि मुसलमान पीछे हुआ नहीं है बल्कि पूरे सामाजिक और सरकारी तंत्र ने उसे पीछे धकेला है और इतना पीछे धकेला है कि वो शायद पाताल में जा चुका है।

उच्च शिक्षा

मुसलमान उच्च शिक्षा के मामले में उस जगह पहुंच चुका है जहां उसके 5 फीसदी युवा भी ग्रेजुएशन नहीं कर पा रहे है। दूसरों की मिसाल क्या दें जब मैं अपने कॉलेज में मास्टर कर रहा था तो अपने बैच का इकलौता मुस्लिम था। लड़कियों की शिक्षा के मामले में तो आंकड़ें और भी ख़राब है। देश में इस बात का जितना भी ढिंढोरा पीट लिया जाये कि मुसलमानों को माइनॉरिटी के नाम पर अपने उच्च शिक्षण संस्थान खोलने और आरक्षण की आज़ादी है मगर फिर भी अधिकतर जनता जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अलावा किसी दूसरे संस्थान का नाम तक नहीं बतला पाएंगे।

कारोबार या सरकारी जॉब

कारोबार या जॉब के मामले में मुसलमानों के हालात किसी से भी छुपी नहीं हैं। सरकारी जॉब के मामले में ऐसी अवधारणा बना दी गयी है कि मुसलमानों को तो सरकारी जॉब मिलेगी ही नहीं जिसके चक्कर में ज्यादातर गिनती अपने निजी छोटे-मोटे कारोबार को स्थापित करने में लग जाती है। मुस्लिम युवा या तो किसी प्राइवेट जगह पर कोई मामूली सी जॉब करता है अथवा फिर कोई छोटा सा कारोबार अपनी हैसियत के मुताबिक ही करने लग जाता है। यहां ध्यान दीजियेगा कि कारोबार की उन्नति के लिए कम ब्याज दर पर मिलने वाला लोन बहुत सहायक होता है और इसमें मुसलमानों की भागीदारी जीरो है।

राजनीतिक तौर पर मुस्लिम शून्य

अब आते है असल मुद्दे पर जो मुसलमानों के पिछड़ेपन की सबसे बड़ी वजह है। जब तक किसी भी समुदाय को शिक्षा, कारोबार के साथ राजनीति में उचित भागीदारी नहीं मिलेगी तब तक उस समुदाय का उत्थान कोई माई का लाल नहीं करवा सकता है। कुछ गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2021 में मुस्लिम आबादी 21 करोड़ के आस पास है जो कुल आबादी का 15 फीसदी होती है। अगर आप इस 15 फीसदी आबादी को राजनीतिक पार्टियों और विधानसभा लोकसभा में ढूंढने की कोशिश करेंगे तो बेहद कम गिनती मिलेगी।

उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में जहां मुस्लिम आबादी 19 फीसदी से ज्यादा है वहां पर आबादी के हिसाब से विधायक की गिनती देखी जाये तो ये गिनती तक़रीबन 80 विधायक होने चाहिए मगर 2022 के विधानसभा चुनाव में केवल 34 मुस्लिम विधायक ही चुने गए थे। अगर बात सांसदों की करें तो कर्नाटक जहां 13 फीसदी मुस्लिम आबादी है और 40 से ज्यादा विधानसभा के चुनावी नतीजों को मुसलमान प्रभावित करते है वहां से एक भी सांसद नहीं है। ऐसे ही 9 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले राज्य राजस्थान से भी जीरो मुस्लिम सांसद है।

गुजरात जहां मुसलमान आबादी 10% और 34 सीटों के चुनावी नतीजे सीधे तौर पर मुसलमान प्रभावित करता है वहां से भी कोई भी मुस्लिम सांसद नहीं है। मध्य प्रदेश जहां पर 6.5 फीसदी मुस्लिम आबादी है और भोपाल व् बुरहानपुर में अच्छी मुस्लिम आबादी होने के बावजूद कोई भी मुस्लिम सांसद नहीं है। झारखंड की 15 फीसदी मुस्लिम आबादी के बावजूद भी केवल 2 विधायक और जीरो सांसद हैं।

अगर आबादी के अनुपात में लोकसभा सांसदों की बात करें तो 15 फीसदी मुस्लिम आबादी के हिसाब से 81 से ज्यादा मुस्लिम सांसद होने चाहिए थे मगर 2019 के लोकसभा चुनाव में केवल 27 सांसद चुन कर आये थे जिसमें से 3 सांसदों को हाल फिलहाल में अयोग्य घोषित कर दिया गया है।

राजनीतिक पार्टियां और मुसलमान

अब यहां पर जरा और तह में चलते है। भारतीय राजनीति मुसलमानों के लिहाज में तीन तरह की राजनीतिक पार्टियां हैं। जिसमें से एक पार्टी भाजपा है जो पिछले 9 सालों से सत्ताधारी पार्टी भी है जिसकी पूरी राजनीती ही मुस्लिम विरोध और हिन्दू मुस्लिम की राजनीती के ऊपर टिकी हुयी है। इस पार्टी ने अभी तक मुसलमानों को राजनीती के लिहाज से अपनी पार्टी के लिए अछूत बना रखा है। क्या विधानसभा चुनाव और क्या ही लोकसभा चुनाव ये पार्टी मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट न देने का नया रिकॉर्ड बनाती है। मगर हाल फ़िलहाल में पसमांदा मुस्लिम की बहस ने पार्टी के मुसलमानों की तरफ झुकाव को प्रदर्शित किया है।

दूसरी पार्टी है कांग्रेस जो अपने आप को सेक्युलर, लिबरल और विभिन्नताओं वाली पार्टी बताती है। कांग्रेस पुराने समय मुसलमानों को टिकट देने में तो कुछ हद तक तो ठीक थी मगर हालिया समय में मुसलमानों को टिकट देने के मामले में ये पार्टी भी बेहद कंजूसी कर रही है। आबादी के हिसाब से तो छोड़िये मुस्लिम बहुल सीटों पर भी मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने में आनाकानी शुरू हो चुकी है।

हालिया कर्नाटक चुनाव और मुसलमान

चलिए उदहारण के साथ समझते हैं। हालिया चुनाव में कर्नाटक में मुसलमानों ने कांग्रेस को एक तरफ़ा वोट किया था मगर राजनीतिक नुमाईंदगी और सीट बंटवारे के नाम पर मुसलमानों को केवल लॉलीपॉप ही मिला है। कर्नाटक की 13 फीसदी मुसलमानों का प्रदेश की राजनीती में केवल 4 फीसदी ही भागेदारी क्यों है? तथाकथित सेकुलर सरकारें मुसलमानों का पूरा वोट लेने के बावजूद भी सीट के बंटवारे में हमेशा मुसलमानों को कम सीट का धोखा क्यों देती हैं? राज्य की विधानसभा में आबादी के हिसाब से 29 मुसलमान विधायक होने चाहिए मगर अभी 9 विधायक ही क्यों हैं?

जानते है इसमें भी खास बात तो ये है कि अगर मान लीजिये कांग्रेस की सरकार बन भी जाती है तो मुस्लिम विधायकों के पोर्टफोलियो में केवल माइनॉरिटी विभाग या वक्फ बोर्ड का लॉलीपॉप ही आता है। 80 के दौर में कभी यही कांग्रेस मुसलमानों को मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री की हैसियत देती थी मगर मौजूदा समय में क्या हालात है आप सभी बखूबी वाकिफ हैं।

मध्य प्रदेश के आगामी चुनाव और मुसलमान

ये तो हो गयी कांग्रेस के जीते हुये राज्य कर्नाटक की बात, अब बात करते है मध्य प्रदेश जहां आगामी दिनों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। मध्य प्रदेश में 7 सीटें मुस्लिम बाहुल्य हैं। वहीं 5 जिलों में मुस्लिम वोट निर्णायक हैं। भोपाल की उत्तर और मध्य विधानसभा के अलावा प्रदेश की 25% सीटों पर मुस्लिम वोट बैंक बड़ी भूमिका निभाता है। इनमें भोपाल की नरेला विधानसभा, बुरहानपुर, शाजापुर, देवास, रतलाम सिटी, उज्जैन उत्तर, जबलपुर पूर्व, मंदसौर, रीवा, सतना, सागर, ग्वालियर दक्षिण, खंडवा, खरगोन, इंदौर-एक, देपालपुर में मुस्लिम वोटरों का प्रभाव है। हर विधानसभा सीट पर मुसलमानों की उपस्थिति अच्छी खासी संख्या में है।

मध्य प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों के वोट तो चाहिए लेकिन टिकट देने में परहेज़ मध्यप्रदेश चुनाव 2018 में कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलों ने कुल मिलाकर 459 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे लेकिन इनमें से मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या सिर्फ 4 थी। कांग्रेस ने जहां विधानसभा चुनाव में 3 मुस्लिम चेहरे उतारे हैं तो वहीं बीजेपी ने पूरे प्रदेश में सिर्फ एक मुस्लिम प्रत्याशी को मैदान में उतारा है। इसमें भी आखिरी समय पर कांग्रेस ने 1 मुस्लिम उम्मीदवार को हटा दिया था।

मध्य प्रदेश के बुरहानपुर शहर की मुस्लिम आबादी लगभग 50 फीसदी है मगर इसके बावजूद विधानसभा चुनाव में यहां पर कांग्रेस को कोई मुस्लिम उम्मीदवार नहीं मिलता है। रही बात भाजपा की तो उससे क्या ही गिला किया जाये जिसकी पूरी राजनीती ही मुस्लिम विरोध पर टिकी हुयी है।

बुरहानपुर विधानसभा से आखिरी बार एनसीपी से हामिद काजी मुस्लिम विधायक बने थे। मुसलमानों को राजनीतिक हाशिये पर कैसे धकेला जाता है इस कैलकुलेशन से आपको साफ़ समझ आ गया होगा। कुछ रिपोर्ट की माने तो बुरहानपुर जिले की मुस्लिम आबादी भोपाल से भी ज्यादा है मगर फिर भी राजनीतिक तौर पर मुस्लिम शून्य हैं।

मध्य प्रदेश में एक विधानसभा है जबलपुर पूर्व जो दलित समुदाय के लिए आरक्षित है। इस सीट पर मुस्लिम आबादी लगभग 26 फीसदी है। चूंकि ये विधानसभा सीट आरक्षित हो गयी है तो मुस्लिम राजनीति यहां पर ख़त्म ही समझा जाये क्यूंकि मुस्लिम उम्मीदवार जीतना तो दूर चुनाव भी नहीं लड़ सकता है।

मुस्लिम राजनीतिक भागीदारी को खत्म करने में परिसीमन और सीटों के आरक्षित करने के तरीके का भी अहम रोल रहा है। अक्सर देखा गया है कि मुसलमानों की अच्छी गिनती वाली सीटों को दलित समुदाय के लिए आरक्षित कर दिया जाता है जिसका नतीजा ये निकलता है कि मुस्लिम उम्मीदवार उस सीट से चुनाव ही नहीं लड़ पाता है।

तीसरी टाइप की वो पार्टियां है जिनकी बुनियाद समाजवादी विचारधारा के ऊपर टिकी हुयी है। सपा, राजद, जदयू, जेडीएस, बसपा, TMC, BRS आदि जैसी क्षेत्रीय पार्टियां है जो अपने समुदाय के वोट के साथ मुस्लिम वोट को अपने खेमे में कर के सत्ता की सीढ़ियों को पार करती है। आप अगर गहराई से देखेंगे तो समझ जायेंगे कि इन पार्टियों को भी मुसलमानों का एक तरफ़ा वोट मिलता है मगर जब टिकट बंटवारे और सरकार बनने के बाद विभागों की बात आती है तो अक्सर निराशा ही हाथ लगती है। हिन्दू मुसलमान की राजनीती की काट में ये जातिवादी राजनीती करने वाले ये राजनीतिक दल भी मुसलमानों को वोट शेयर की तरह ही समझते है। मुसलमान पार्टी और सरकार का अहम हिस्सा कब बनेंगे ये सवाल 90 के दशक से ही चला आ रहा है।

निष्कर्ष

जब आप मुसलमानों के मुद्दों पर बात करेंगे या उनके उत्थान की बात करने की मांग इन सेकुलर पार्टियों से करेंगे तो अक्सर यही पार्टियां “भाजपा आ जायेगी” का खौफ दिखा कर मुसलमानों को चुपचाप एक तरफ़ा वोट करने की नसीहत कर देंगे। मुसलमान अपने समाज के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए शिक्षा, कारोबार और आरक्षण की बात करेंगे अक्सर ये सभी पार्टियां सन्नाटे में चली जाती है मानों ऐसा लगता है कि ये लोग सोच रहे हों कि जमीं फट जाये और वो उसमें समां जाये मगर मुसलमानों के मुद्दों पर उन्हें बयान न देना पड़ जाए।

किसी पार्टी विशेष को हराने का पूरा ठेका अपने कन्धों पर लिए हुये किसी भी पार्टी को अपने हितों के बारें में बात किये बिना एक तरफ़ा वोट कर देना अब मुसलमानों के मिजाज में शामिल कर दिया गया है। समुदाय का उत्थान शायद मुस्लिम समाज के लिए उतना अहम नहीं है जितना उसकी अहमियत होनी चाहिए। आबादी के हिसाब से राजनीतिक तौर पर भागीदारी की बात करते ही ज्यादातर सेकुलर पार्टियों का एक ही रवैय्या होता है कि मुसलमानों को ज्यादा टिकट देंगे तो हिन्दू वोट छिटक जायेगा और भाजपा के पाले में चल जायेगा।

मुसलमानों को अब अपने इस डर को त्याग देना चाहिए और बेबाक हो कर खुद को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों से बार्गेनिंग करनी चाहिए। मुसलमानों की बुनियादी सुविधाओं में उचित हिस्सेदारी, कारोबार के मामले में तरक्की और उचित राजनीतिक भागीदारी ही मुसलमानों को पिछड़ेपन से निकाल एक ताकतवर समुदाय में तब्दील करेगा।

Ansar Imran SR की क़लम से

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।

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