कॉलेजियम सिस्टम पर सरकार और सुप्रीम कोर्ट में तकरार
जजों की नियुक्ति के लिए मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली को लेकर केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच गतिरोध सुलझने के बजाय बढ़ता जा रहा है क्योंकि इस पर अभी भी बयानबाजी जारी है। केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू हर दिन इस मामले में कुछ न कुछ कहते रहते हैं, सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से भी उनके बयानों का जवाब दिया जाता है। सरकार तो सरकार उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी इस मामले में ऐसा बयान दिया था जिससे एक अलग विवाद खड़ा हो गया और कानूनी विशेषज्ञों ने उनके बयान पर टिप्पणी करना शुरू कर दिया।
उपराष्ट्रपति ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (एनजेएसी) और उससे संबंधित संवैधानिक संशोधनों को खत्म करने का सवाल उठाया। ऐसा लगता है कि केंद्रीय कानून मंत्री ने इस मामले में मोर्चा खोल दिया है और वह लगातार कुछ ऐसा कह रहे हैं, जिस पर एक नई चर्चा शुरू हो जाती है। उन्होंने एक बार जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली को भारतीय संविधान के लिए विदेशी बताया था। पिछले दिनों उन्होंने कॉलेजियम में सरकार के प्रतिनिधि को शामिल करने की सबसे बड़ी मांग को लेकर पत्र लिखकर सबका ध्यान अपनी ओर खींचा था।
अब उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज आरएस सोढ़ी के एक इंटरव्यू का वीडियो शेयर किया और कॉलेजियम सिस्टम की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि यह एक जज की आवाज है.ज्यादातर लोगों की इस मुद्दे पर एक जैसी राय है। ये वो लोग हैं जो संविधान के प्रावधानों की अनदेखी करते हैं।
ट्वीट में कानून मंत्री ने यह भी कहा कि भारतीय लोकतंत्र की असली खूबसूरती इसकी सफलता है, जनता अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन करती है। चुने हुए प्रतिनिधि लोगों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं और कानून बनाते हैं। हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र है और हमारा संविधान सर्वोच्च है।
साझा साक्षात्कार में जस्टिस सोढ़ी ने कहा कि क़ानून बनाने की शक्ति संसद के पास है, सर्वोच्च न्यायालय कानून नहीं बना सकता क्योंकि उसके पास ऐसा करने की कोई शक्ति नहीं है। उन्होंने कहा, “क्या आप संविधान में संशोधन कर सकते हैं?” संविधान में केवल संसद द्वारा संशोधन किया जा सकता है लेकिन मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने संविधान को हाईजैक कर लिया है।
जस्टिस सोढ़ी ने एक बड़ी बात कही है और कानून मंत्री ने उसे साझा कर एक तरह से उनका समर्थन भी किया है.इसमें कोई शक नहीं कि कॉलेजियम सिस्टम को लेकर हर दौर में न सिर्फ सरकार और सुप्रीम कोर्ट बल्कि क़ानूनी विशेषज्ञों के बीच मतभेद होते रहे हैं ,कुछ समर्थन में थे और कुछ विपक्ष में,राजनीतिक दलों की भी यही स्थिति है।
1992 में अस्तित्व में आई कॉलेजियम प्रणाली को एनजेएसी और अन्य संवैधानिक संशोधन लाकर एक बार सरकार ने आजमाया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी को खत्म करके सरकार के प्रयासों को विफल कर दिया है। ऐसा लगता है कि कॉलेजियम प्रणाली जहां सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह से अपने शिकंजे में रखना चाहती है, तो वहीं यह प्रणाली सरकार की आंखों में चुभती रहती है।
सरकार या तो कॉलेजियम सिस्टम को पूरी तरह से खत्म करना चाहती है या अपने प्रतिनिधियों को इसमें शामिल कर अपने फैसलों को लागू करना चाहती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट किसी भी सूरत में इसमें सरकारी दखल नहीं चाहता. इस तरह सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच यह विवाद लंबा खिंचता जा रहा है. नतीजा क्या होगा? और ऊंट किस करवट बैठेगा अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।
बात अदालतों में लंबित पड़े मुकदमों से शुरू होकर कॉलेजियम सिस्टम तक पहुंच गई. दरअसल जब मुकदमों के निपटारे के लिए जजों की नियुक्ति होने लगी और फाइलों के अनुमोदन में देरी होने लगी तो सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए सरकार को दोष देना शुरू कर दिया। इस संदर्भ में सरकार ने कॉलेजियम प्रणाली पर सवाल उठाया।
तभी से यह चर्चा शुरू हुई और आए दिन हमें नई-नई बातें सुनने और पढ़ने को मिलती हैं। मुख्य समस्या मुकदमों का लम्बित होना और लोगों को न्याय मिलने में देरी है। हालांकि इस दौरान मामलों को निपटाने की गति कुछ हद तक बढ़ी है, लेकिन अभी भी सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में न्यायाधीशों की कमी के कारण वह गति नहीं आ रही है, जो आवश्यक है और समय की मांग भी है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।


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