ममता-शरद पावर के बाद कांग्रेस के लिए महंगी पड़ेगी कप्तान की बग़ावत कांग्रेस के लिए उसके बागी क्षेत्रीय क्षत्रप हमेशा ही बड़ा खतरा बनते रहे हैं। कांग्रेस को जिन राज्यों में भी क्षेत्रीय क्षत्रपों की बगावत का सामना करना पड़ा है वहाँ मुख्यधारा की राजनीति से हटकर हाशिये पर जाना पड़ा है ।
ममता और शरद पवार के बाद आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी इसका जीता जागता उदाहरण है।
अब लग रहा है कि पंजाब में भी यही कहानी दोहराई जाने वाली है। विधानसभा चुनाव से पहले ही पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस से हटकर एक अलग पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया है। हालांकि पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी राजनीतिक ढलान पर हैं लेकिन इस सच्चाई से कोई इनकार नहीं कर सकता कि प्रदेश में उनकी मजबूत पकड़ है और उनकी शख्सियत की एक अपील रही है। उनका यही राजनीतिक कद कांग्रेस और सत्ता की राह में अड़चने डाल सकता है।
कांग्रेस पंजाब में मजबूत स्थिति में है और पंजाब कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहा है। उसे अब भी सत्त्ता का मजबूत दावेदार माना जा रहा है। आम आदमी पार्टी के पास कोई लोकप्रिय चेहरा ना होना और अकाली दल के सामने साख के संकट के बीच हालात कांग्रेस के लिए बेहद मुफीद माने जा रहे हैं। लेकिन कैप्टन के कांग्रेस का जहाज छोड़कर अपने नए दल के बैनर के साथ चुनाव में उतरने की घोषणा ने कांग्रेस के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी है।
दूसरी ओर पंजाब कांग्रेस में मचा घमासान थम नहीं रहा है। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी जहां चुनाव को लेकर तैयारी करते दिख रहे हैं वहीं प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू का रवैया पार्टी को असहज बनाए हुए है। ऐसे में कांग्रेस को हानि पहुंचाने की नीयत के साथी चुनाव में उतरने जा रहे कैप्टन को रोकने के लिए पार्टी को कड़ी राजनीतिक परीक्षा देनी होगी।
क्षेत्रीय क्षत्रपों का कांग्रेस से बागी होना अभी तक इस दल के लिए बेहद कटु अनुभव रहा है। पश्चिम बंगाल में जिस समय ममता बनर्जी कांग्रेस की तेजतर्रार नेता के रूप में स्थापित हो चुकी थी उसी समय 1997 में पार्टी के तत्कालीन नेतृत्व से खफा होकर उन्होंने अलग रास्ता अपना लिया और 1998 में तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की। पश्चिम बंगाल में जैसे-जैसे ममता का कद बड़ा कांग्रेस धरातल में उतरती चली गई।
हालत यह हो गई कि 2011 में ममता बनर्जी एक बार फिर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं तो विधानसभा में कांग्रेस का एक भी विधायक नहीं है। वहीं बात लोकसभा की करें तो यहाँ भी 42 सीटों में से कांग्रेस के पास सिर्फ 2 सीट हैं।
ममता बनर्जी के अलावा 1999 में महाराष्ट्र में कांग्रेस के कद्दावर नेता शरद पवार ने भी कांग्रेस से अपने राहें जुदा की तो महाराष्ट्र जैसे प्रमुख प्रदेश में शरद पवार की पार्टी से गठबंधन करना कांग्रेस की राजनीतिक मजबूरी बन गई। महाराष्ट्र में कांग्रेस की स्थिति यहहै कि वह भाजपा , शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बाद चौथे स्थान पर खिसक गई है।
बात करें आंध्र प्रदेश की, तो कांग्रेस के दिग्गज नेता दिवंगत राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी ने कांग्रेस से अलग होकर वाईएसआर कांग्रेस का गठन किया। जगनमोहन रेड्डी का 2011 में कांग्रेस से अलग होकर अपना राजनीतिक दल बनाना कांग्रेस के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ।
2014 के लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में जगनमोहन की पार्टी विपक्षी दल बन कर उभरी और कांग्रेस की नैया ही डूब गई। 2019 के विधानसभा चुनाव में जगनमोहन रेड्डी दो तिहाई बहुमत पाकर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और उनकी पार्टी ने आंध्र प्रदेश की 25 लोकसभा सीटों में से 22 सीटों पर जीत का परचम फहराय।
क्षेत्रीय क्षत्रपों की बगावत और उनकी सफलता को देखते हुए अब पंजाब में भी कांग्रेस के प्रमुख चेहरा रहे कैप्टन अमरिंदर की बगावत कोई बहुत बड़ी चुनौती भी नहीं बन सकी तो कांग्रेस के लिए राजनीतिक जोखिम जरूर बढ़ाएगी।


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