बीजेपी की जीत को जनादेश के तौर पर नहीं देखा जा सकता
वोटों की गिनती शुरू हुई तो इसके आंकड़ों और नतीजों को समझने के लिए हम सब टीवी के सामने बैठ गए और इस तमाशे में शामिल हो गए कि, ‘कौन बनेगा प्रधानमंत्री?’ इस सवाल का जवाब तो टीवी से मिल जाएगा, लेकिन ‘देश का क्या होगा?’ यह सवाल अनुत्तरित रहेगा। किसकी सरकार बनेगी, इसकी खबर तो हमें मिल जाएगी, लेकिन हमें खुद समझना होगा कि इस चुनाव के जरिए सरकार को क्या जनादेश मिला है। जनादेश की व्याख्या महज टीवी एंकरों पर नहीं छोड़ी जा सकती।
जनादेश की निर्भरता चुनावों के ऐतिहासिक संदर्भ पर होता है। जब पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने 2014 में 282 सीटें हासिल कीं, तो इसे एक अभूतपूर्व जनादेश के रूप में देखा गया क्योंकि इससे पहले किसी एक पार्टी को तीन दशकों में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। इसी तरह, 1989 के चुनावों में, कांग्रेस 193 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद, चुनावी नतीजों को कांग्रेस के खिलाफ जनादेश माना जाता था, क्योंकि वह 400 से अधिक सीटों के रिकॉर्ड से नीचे गिर गई थी। इस तर्क के कारण 2004 के नतीजों को अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के खिलाफ जनादेश समझा गया, जबकि 1996 में केवल 142 सीटें जीतने के बावजूद संयुक्त मोर्चा को सरकार बनाने का हकदार माना गया।
हमें 2024 के चुनावी नतीजों की व्याख्या करते समय ऐतिहासिक संदर्भ को ध्यान में रखना होगा। सबसे पहले हमें यह तथ्य स्वीकार करना होगा कि यह बराबरी का मुकाबला नहीं था। पिछले 10 वर्षों से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार ने इस देश में पूर्ण नियंत्रण बनाए रखा है। 2014 की असाधारण सफलता के बाद, यह 2019 के चुनावों में और भी ऊँचाई पर पहुंच गया, इस दौरान देश के अधिकांश विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार पर कब्जा कर लिया। यहाँ तक कि उसने चुनाव नहीं जीते, उन राज्यों में भी जहां बीजेपी नहीं थी, वहां भी उसकी उपस्थिति और विजय एक साधारण घटना नहीं है। अब सवाल यह है कि क्या 2024 के चुनाव बीजेपी के राजनीतिक वर्चस्व की खिल्ली उड़ाने को रोक पाएंगे या नहीं।
चुनाव लड़ने की क्षमता के लिहाज से यह बराबरी का मुकाबला नहीं था। विपक्ष के मुकाबले बीजेपी को चुनाव लड़ने के लिए मिलने वाली राशि में बहुत फर्क था। मुख्यधारा के अखबार और टीवी चैनल और सभी मीडिया बीजेपी के प्रचार में लगे हुए थे। चुनाव से पहले ईडी, सीबीआई, पुलिस और प्रशासन भी सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ताओं की तरह सक्रिय थे। चुनाव आयोग का रवैया स्पष्ट पक्षपातपूर्ण था। विपक्ष को चुनाव लड़ने से अधिक अपने उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं को जोड़े रखने की चिंता थी। चुनावी नतीजों का विश्लेषण करते समय इस बुनियादी असंतुलन को ध्यान में रखना होगा। इस संदर्भ में बीजेपी का ‘चार सौ पार’ का दावा उसकी सफलता की परीक्षा बन जाता है।
आज के नतीजों में असली सवाल यह नहीं है कि क्या बीजेपी, उसके चुनावी सहयोगी अपनी पूरी ताकत के साथ सरकार बनाने में कामयाब होंगे या नहीं। सवाल यह है कि, बीजेपी का राजनीतिक वर्चस्व बरकरार रहेगा या नहीं। यहां एक बात तय है कि,अगर ‘चार सौ पार’ के दावे के बाद भी बीजेपी ने अपने 2019 के 303 के आंकड़ों से कम सीटें पाई हैं तो, इसे बीजेपी के वर्चस्व ख़त्म की शुरुआत के रूप में देखा जाएगा। यहां तक कि अगर बीजेपी दक्षिण और पूर्वी तटवर्ती क्षेत्रों में फैलती है तो उसके वर्चस्व की परीक्षा दक्षिण में कर्नाटक से लेकर हिंदी पट्टी और पश्चिम में महाराष्ट्र से लेकर पूर्व में झारखंड और बिहार तक के विस्तृत क्षेत्रों में की जाएगी, जो बीजेपी के पास हैं।
बीजेपी ने पिछले दो चुनावों में अपनी एकाधिकार स्थापित कर ली थी। अगर यहां बीजेपी की एकाधिकार टूट जाता है तो उसे महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड जैसी राज्यों में कुछ ही महीनों में चुनावी हार का सामना करना पड़ सकता है। ऐसे में मीडिया की आवाज खुल जाएगी। अगर बीजेपी की अपनी सीटें बहुमत के निशान यानी 272 से नीचे आई हैं, तो इसे बीजेपी की हार के रूप में देखा जाएगा। और इससे समझा जाएगा कि जनादेश उसके खिलाफ है। ऐसे में बीजेपी की तीसरी सरकार को बुरी तरह चोट पहुंचेगी। अगर बीजेपी की सीटें 250 से भी कम सीटें हैं, तो इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कमी के तौर पर भी देखा जाएगा। ऐसे में प्रधानमंत्री को बीजेपी के भीतर से चुनौती का सामना करना पड़ सकता है।
अब तक हमने केवल उन्हीं संभावनाओं पर विचार किया था जिनमें बीजेपी की सीटें पिछले चुनावों से कम हो सकती थीं, लेकिन एग्जिट पोल इस संभावना को खारिज कर दिया था। उनके मुताबिक बीजेपी अकेले 320 से 340 या इससे भी अधिक सीटें जीत लेगी और उसके साथ एनडीए के सहयोगी भी चार सौ का आंकड़ा पार कर जाएंगे तो जाहिर है कि बीजेपी का वर्चस्व बरकरार रहेगा। एक अंतिम और महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर एग्जिट पोल में दिखाए गए आंकड़ों को चुनावी नतीजों के रूप में प्रदर्शित किया जाता तो संभव है कि कई विपक्षी पार्टियां इस नतीजे और ईवीएम की सत्यता पर सवाल उठातीं। चुनाव आयोग की गिरती साख और सरकारी मशीनरी के गलत इस्तेमाल के कारण विपक्ष के अधिकांश वोटरों को इस आरोप में सच्चाई नजर आती। देश के बड़े हिस्सों में चुनावी प्रक्रिया पर अविश्वास बढ़ता और कई वर्गों में पिछले 70 वर्षों में भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यानी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों पर सवालिया निशान लग जाता।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): ये लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए IscPress उत्तरदायी नहीं है।