ISCPress

हरियाणा चुनाव में कांग्रेस-बीजेपी की हार-और जीत का  विश्लेषण 

हरियाणा चुनाव में कांग्रेस-बीजेपी की हार-और जीत का  विश्लेषण 

हरियाणा का चुनाव एकतरफा माना जा रहा था। चुनावी विशेषज्ञ, राजनीतिक विश्लेषक, एग्जिट पोल प्रस्तुत करने वाले संस्थान, कांग्रेस कार्यकर्ता, यहां तक कि दबी जुबान में बीजेपी कार्यकर्ता भी इस राय से सहमत थे कि हरियाणा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी और सरकार बनाएगी। ज़मीनी हालात भी कुछ ऐसे ही थे। बेरोज़गारी, कृषि समस्याएं, जिनसे किसानों की नाराज़गी बढ़ी, उनके विरोध को दबाने की सरकार की कोशिशें, विरोध को बदनाम करने का तरीका, पहलवानों का विरोध, उस विरोध के खिलाफ संघर्ष, अग्निवीर योजना से युवाओं में फैली बेचैनी और ऐसे ही अन्य मुद्दों से निपटने में डबल इंजन सरकार असफल रही। इसलिए बीजेपी को “कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती” वाली स्थिति का सामना करना पड़ा। मगर जो नतीजे आए, उन्होंने सबको चौंका दिया। इस फैसले पर अब तक भी यकीन नहीं हो रहा है, लेकिन चुनावी नतीजों के शुरुआती विश्लेषण से कुछ बातें समझ में आती हैं:

बीजेपी ने भले ही हार का अंदेशा जताया हो, लेकिन अंदरखाने उसने गैर-जाट वोटों को केन्द्रित करने पर ध्यान दिया और चुपचाप उन्हें साधने पर मेहनत की। कांग्रेस को जाट-बहुल इलाकों में सफलता मिली, जहां उसके उम्मीदवार बड़े या बहुत बड़े अंतर से जीते, लेकिन जिन इलाकों में जाटों का वर्चस्व नहीं था, वहां बीजेपी को बढ़त मिली। दूसरे शब्दों में, जिस तरह हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के जरिए जीत की राह बनाई जाती है, उसी तरह हरियाणा में जाट और गैर-जाट ध्रुवीकरण हुआ, जिसने बाज़ी पलट दी। कांग्रेस ने कहा ज़रूर था कि उसके साथ हरियाणा की 36 बिरादरियां हैं, लेकिन नतीजे इसकी पुष्टि नहीं करते।

मुस्लिम मतदाताओं ने अपना कर्तव्य बखूबी निभाया और जहां-जहां वे अपने पसंदीदा उम्मीदवार को जिताने में सक्षम थे, वहां उन्होंने जीत सुनिश्चित की। मुस्लिम उम्मीदवारों के बीच की प्रतिस्पर्धा भी उन्हें अपने वोटों को निर्णायक बनाने से नहीं रोक सकी। यह रुझान समय के साथ मज़बूत हो रहा है और यह एक सकारात्मक संकेत है। कांग्रेस की गुटबाज़ी के कारण पिछड़े वर्ग और दलित मतदाता असमंजस में रहे और अंततः बीजेपी की ओर चले गए। इससे कांग्रेस को नुकसान और बीजेपी को फायदा हुआ।

गुटबाज़ी में विशेष रूप से भूपिंदर हुड्डा और कुमारी शैलजा की खींचतान पर बीजेपी ने काफी मेहनत की और शायद इसका भी असर पड़ा। शैलजा का दलित समुदाय में प्रभाव है, लेकिन हुड्डा ने अपने लगभग 70 समर्थकों को टिकट दिलाया, जबकि शैलजा के केवल 9 समर्थकों को उम्मीदवारी मिली। तकनीकी तौर पर और भी कारण हो सकते हैं, लेकिन इन सबके पीछे एक बड़ी सच्चाई यह है कि जितने संसाधन बीजेपी के पास हैं, उसका आधा भी कांग्रेस के पास नहीं है। इसके बावजूद, इस पार्टी ने 2019 के मुकाबले 7 सीटें अधिक जीतीं।

एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि बीजेपी और कांग्रेस के बीच भले ही 11 सीटों का अंतर हो, लेकिन वोट प्रतिशत में अंतर नहीं है। दोनों पार्टियों को 39% वोट मिले हैं। अंतर बस 0.85% का है, लेकिन मुकाबले में केवल जीत देखी जाती है, इसी कारण पूरा मीडिया बीजेपी की “हैट्रिक” का जश्न मना रहा है। कांग्रेस ने जितने-जितने राज्यों में जीतते-जीतते हार का सामना किया है, उसमें एक और राज्य का इजाफा हुआ है, इसलिए अब उसे महाराष्ट्र के लिए नई रणनीति बनानी होगी।

Exit mobile version