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अमेरिका की विदेश नीति बदली, खुश फहमी से निकले नई दिल्ली

अमेरिका की विदेश नीति बदली, खुश फहमी से निकले नई दिल्ली

ट्रम्प की विदाई और व्हाइट हाउस में बाइडन की आमद के साथ ही भारत अमेरिका संबंधों की समीक्षा करने की झड़ी लग चुकी है। अधिकांश विश्लेषकों का निष्कर्ष एक ही था कि दोनों प्रजातंत्र सिद्धांतों के आधार पर न सही लेकिन संयुक्त दुश्मन के मद्देनज़र एक दूसरे के क़रीब आएँगे। अधिकांश लोगों का मानना था कि मानवाधिकार और प्रजातांत्रिक संस्थाओं के कमज़ोर होने जैसे मुद्दे, राष्ट्रीय सुरक्षा हितों और आर्थिक फ़ायदों के लिए साइड में चले जाएंगे।

इक तरफा संबंधों की लाइन और आसान लेन-देन के साथ मुश्किल यह है कि यह अमेरिका की विदेश नीति के बदलते फ़्रेमवर्क की सच्चाई में फ़िट नहीं बैठता। अमेरिकी विदेश नीति पुराने ढर्रे पर चली आ रही दोस्ती और दुश्मनी पर आधारित नहीं रह गयी है, जिसके तहत किसी दोस्त या घटक देश के नियम उल्लंघन को उसके अपने मददगार होने के कारण नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था।

अब हालात बदल चुके हैं। और यह बदलाव अचानक नहीं आया है। यह बदलाव क़रीब एक दशक पहले हो चुका है। लेकिन लगता है कि इस बदलाव को दुनिया के इस भाग में महसूस नहीं किया गया। अमेरिका विदेश नीति का पैराडाइम बदल चुका है जिसके तहत व्यापार, क्लाइमेट चेंज, सुरक्षा या मानवाधिकार जैसे मुद्दे पर किसी देश का दृष्टिकोण उसे वर्गीकृत करने का उसूल है न कि वह देश। अगर भारत सहित दूसरे देश इस बदलते पैराडाइम में ख़ुद को नहीं ढालते तो वह अमेरिका के साथ अपने व्यवसाय व साझेदारी को बहुत ही विरोधाभासी व मुश्किलों से घिरा हुआ पाएंगे।

सवाल यह पैदा होता है कि क्या विदेश नीति की समीक्षा में, वाशिंगटन अपनी विदेश नीति से संबंधित लिए जाने वाले फ़ैसलों की सच्चाई को नज़रअंदाज़ करता है। मेरा तर्क यह है कि ज़्यादातर समीक्षाएं इस विचार पर आधारित होतीं हैं कि ज़्यादातर विदेश नीति की कार्यवाहियों को इस मान्यता के मुताबिक़ ढाला जा सकता है कि एक स्वाधीन राष्ट्र एकीकृत खंबे की तरह होता है जिसमें फ़ैसला लेने का अधिकार एक खिलाड़ी के पास होता है, जिसे राष्ट्राध्यक्ष कहते हैं।

इसके अलावा यह अकेला ख़िलाड़ी तर्कसंगत फ़ैसला लेने की प्रक्रिया पर अमल करता है। वह सकारात्मक और नकारात्मक विकल्पों की समीक्षा करने के बाद उसे चुनता है जो राष्ट्रीय हित के अनुकूल होता है। जिन देशों के एक जैसे हित होते हैं उन्हें दोस्त समझा जाता है और जिनके हित अलग होते हैं उन्हें दुश्मन।

घटकों के राष्ट्रीय हितों की पूरी तरह अनदेखी नहीं की जाती, जिससे घटकों के बीच लेन-देन और बातचीत की संभावना पैदा होती है। दुश्मन के साथ दुश्मनी भरे संबंध का चलन होता है। इस फ़्रेमवर्क का सादापन लुभावना होता है जिससे यह समीक्षकों और मीडिया के बीच लोकप्रिय है।

अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकेन ने, अमेरिका -चीन संबंध पर बात करते हुए, पैराडाइम में हुए मूल बदलाव को साफ़ तौर पर ज़ाहिर कर दिया है। उन्होंने इसे दुनिया में सबसे अहम संबंध की संज्ञा दी। यह, भविष्य में जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, उसका स्वरूप बनाएगा। इसके कुछ नुक़सान भी हैं। इसमें प्रतियोगिता और सहयोग दोनों के आयाम भी हैं।

देशों को अब दोस्त या दुश्मन को तौर पर नहीं बांटा जाता। बल्कि व्यापार, बौद्धिक संपदा अधिकार, क्लाइमेट चेंज, सुरक्षा, आतंकवाद और मानवाधिकार जैसे अहम मुद्दे पर क़रार बहुआयामी होता है, जिसके बीच अदला-बदली सीमित होती है। क़रार के स्वरूप पर सहयोग, प्रतियोगिता या टकराव के आयाम का हावी होने इस बात पर निर्भर करेगा कि मुद्दा क्या है, इत बात पर नहीं कि भारत हमारा दोस्त देश है या दुश्मन।

यह लेख @Maulai G की वॉल से लिया गया है)

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