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अल-जूलानी, सत्ता के लिए इज़रायल के साथ मोलभाव करने पर मजबूर 

अल-जूलानी, सत्ता के लिए इज़रायल के साथ मोलभाव करने पर मजबूर 

रॉयटर्स की ताज़ा रिपोर्ट में इज़रायली और सीरियाई अधिकारियों के बीच सीधे संपर्क और “अहमद अल-दलाती” (स्वैदा प्रांत के आंतरिक सुरक्षा प्रमुख) की अध्यक्षता में हुई बैठकों का ज़िक्र, केवल एक “सुरक्षा घटनाक्रम” नहीं है, बल्कि इसे सीरिया की नई सरकार की रणनीतिक गहराई में आ रहे बदलावों के तौर पर देखा जा सकता है। यह एक ऐसे क्षेत्रीय परिवर्तन का संकेत भी है जिसने अल-जूलानी को युद्ध और प्रतिबंधों से थके हुए देश में अपनी बची-खुची सत्ता को बचाए रखने के लिए मोलभाव करने पर मजबूर कर दिया है।

शांति समझौता नहीं, ज़रूरतों का समझौता
इस बातचीत में “सामान्यीकरण” नहीं बल्कि “शांति” शब्द इस्तेमाल हुआ है, लेकिन दस्तावेज़ बताते हैं कि असल में यह केवल एक “स्वीकार्य शांति” का दिखावा है। असलियत में यह दो ऐसे शासनों के बीच एक गुप्त समझौता है जो आंतरिक और बाहरी संबंधों के प्रबंधन में संरचनात्मक गतिरोध का सामना कर रहे हैं।

सीरिया की ओर से ये मुलाकातें ऐसे वक़्त में हो रही हैं जब नई सरकार की वैधता अभी स्थापित नहीं हुई है और स्थानीय ताक़तें नियंत्रण की नई संरचनाएं बना रही हैं। वहीं, इज़रायल के लिए ग़ाज़ा से लेकर लेबनान तक की दक्षिणी सीमाओं पर तनाव बढ़ चुका है, जिससे सीरियाई मोर्चा एक अतिरिक्त बोझ बन गया है, जिसे हल नहीं, बल्कि निष्क्रिय किया जाना ज़रूरी समझा जा रहा है।

सीरियाई पक्ष की ओर से बातचीत के लिए अहमद अल-दलाती की नियुक्ति कोई औपचारिक प्रोटोकॉल नहीं, बल्कि एक “अनिवार्य मिशन” की तरह हुई है। यह इस बात का संकेत है कि सीरिया की नई सरकार में सुरक्षा एजेंसियों का राजनीतिक निर्णयों पर गहरा प्रभाव है। अल-दलाती किसी नीति-निर्माता नहीं, बल्कि “संपर्क अधिकारी” की भूमिका में है। वह गोपनीय समझौतों को लागू करने वाले महज़ एक उपकरण हैं। इससे पता चलता है कि नई सरकार सुरक्षा को राजनीतिक स्थिरता का विकल्प मानती है।

मुलाकातों का समय और पश्चिमी रियायतें
इन बैठकों का समय भी सोच-समझकर चुना गया है, विशेषकर उस समय जब पश्चिम ने सीरिया पर कुछ प्रतिबंधों में ढील दी है। सवाल यह उठता है: क्या सीरिया की नई सरकार इन बैठकों को पश्चिम के साथ सौदेबाज़ी का जरिया बनाना चाहती है? या वह आंतरिक तनाव को इज़रायल के साथ किसी संघर्ष में बदलने से बचना चाहती है? शायद यह एक “राजनीतिक सदाचरण” का प्रमाण बनाकर विरोध को कुचलने और साथ ही पश्चिम से वैधता हासिल करने की दोहरी रणनीति है।

इज़रायल की नीति, चुप्पी के बदले सुरक्षा
इज़रायल के लिए सीरिया की नई सरकार से बातचीत का मतलब इसे मान्यता देना नहीं, बल्कि इसे एक रणनीतिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करना है, जिससे वह दक्षिणी सीरिया में अपनी सीमाओं की सुरक्षा सुनिश्चित कर सके। यह कोई स्थायी साझेदारी नहीं बल्कि एक गुप्त सुरक्षा समझौता है। इज़रायल को सीमा की सुरक्षा मिलती है और इसके बदले में वह सीरिया की आंतरिक नीतियों पर चुप्पी साध लेता है।

इस गुप्त समझौते की दो मुख्य चुनौतियाँ:
1- नई सरकार के पास दक्षिण सीरिया पर पूर्ण नियंत्रण नहीं है, क्योंकि वहां के कई सशस्त्र गुट सेना में शामिल होने से इनकार कर चुके हैं।
2- इस तरह के गुप्त समझौते इज़रायल को सीरियाई शासन की असफलताओं में अप्रत्यक्ष रूप से शामिल कर सकते हैं।

सुरक्षा तक सीमित कर देना एक बड़ी भूल
इन मुलाकातों में सबसे चिंताजनक बात उनकी गोपनीयता नहीं, बल्कि सीरिया जैसे जटिल मुद्दे को दो अधिकारियों के बीच बंद कमरे में हल करने की कोशिश है। जब इतना संवेदनशील मसला केवल “सुरक्षा नियंत्रण” के तहत सुलझाया जाता है, तो इसका मतलब है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय अब राजनीतिक समाधान नहीं चाहता, बल्कि केवल एक बड़े विस्फोट को टालना चाहता है। इस प्रक्रिया का सबसे ख़तरनाक पहलू यह भ्रम है कि हालात नियंत्रण में हैं, जबकि सामाजिक विभाजन, आर्थिक पतन और शासन की विफलता गहराती जा रही है।

कड़वी सच्चाई या विफलता को वैधता देना
ज़ाहिरी तौर पर ये बैठकें एक “व्यावहारिक कदम” लगती हैं, लेकिन असल में यह एक राजनीतिक असफलता और असहायता है, जिसमें दोनों पक्ष केवल अस्थायी स्थिरता के बदले सरकार बना रहे हैं। जहाँ राजनीतिक यथार्थवाद हमें सच्चाई से निपटने की सलाह देता है, यहाँ सच्चाई को स्वीकार कर उसे स्थायी मान लिया गया है, न सरकार, न राजनीति, बस एक असुरक्षित सुरक्षा व्यवस्था। अब देखना यह है कि, यह स्थिति एक “अस्थायी युद्ध-विराम” है या फिर सीरिया राज्य की विफलता को वैध बनाने का एक छलावा?

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