ईरान के साथ समझौता अब भी संभव है: इमैनुएल मैक्रों
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 80वें सत्र के दौरान ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेज़िश्कियान के साथ मुलाक़ात की। इस मुलाक़ात के बाद मैक्रों ने अपने सोशल मीडिया अकाउंट एक्स (पूर्व ट्विटर) पर लिखा कि, ईरान के साथ समझौता अब भी संभव है और इस दिशा में अवसर पूरी तरह बंद नहीं हुए हैं।
हालाँकि, मैक्रों ने पश्चिमी देशों की पुरानी स्थिति दोहराते हुए कहा कि, ईरान को किसी भी हाल में परमाणु हथियार बनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती। उन्होंने आरोप लगाया कि, ईरान अपनी परमाणु प्रतिबद्धताओं का पालन नहीं कर रहा है। इसी आधार पर फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन ने “स्नैपबैक मैकेनिज़्म” लागू करने का निर्णय लिया है, जिसके तहत पहले हटाए गए अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों को दोबारा लागू किया जा सकता है।
मैक्रों ने पेज़िश्कियान से बातचीत के दौरान कुछ ठोस मांगें भी रखीं। इनमें शामिल थीं:
1- अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी () के निरीक्षकों को बिना रोक टोक ईरान की परमाणु सुविधाओं तक पहुँच दी जाए।
2- समृद्ध यूरेनियम और परमाणु सामग्री के भंडार को लेकर पूरी पारदर्शिता बरती जाए।
3- अमेरिका के साथ तुरंत बातचीत फिर से शुरू की जाए।
उन्होंने कहा कि, “समझौता संभव है, लेकिन अब सिर्फ कुछ घंटे बचे हैं। यह पूरी तरह ईरान पर निर्भर करता है कि, वह हमारे द्वारा तय की गई शर्तों को स्वीकार करता है या नहीं।” फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने इस मौके पर अपने देश के दो नागरिकों, सिसिल कोहलर और जैक पेरिस, की रिहाई की भी मांग दोहराई। इन दोनों पर ईरान में जासूसी का आरोप है और कहा जा रहा है कि, वे इज़रायली खुफ़िया एजेंसी मोसाद के लिए काम कर रहे थे।
क्या पश्चिमी देश केवल अपने हित साधना चाहते हैं?
ईरान के साथ समझौते पर फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के बयान ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि, क्या पश्चिमी देश वास्तव में संतुलित और न्यायपूर्ण समझौते की तलाश में हैं या फिर वे केवल अपने हित साधना चाहते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि मैक्रों की इन बातों से साफ झलकता है कि यूरोपीय देश एकतरफा समझौता थोपना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि ईरान पर सारी पाबंदियाँ और निगरानी बनी रहे, जबकि खुद उन्होंने 2015 के परमाणु समझौते (JCPOA) में अपने वादों को पूरा नहीं किया।
ईरान बार-बार यह कह चुका है कि, पश्चिमी देशों ने तेल निर्यात और बैंकिंग लेन-देन पर लगी पाबंदियों को हटाने का वादा निभाया ही नहीं। इसके बावजूद वे ईरान से नई शर्तें मानने की मांग कर रहे हैं। ऐसे में यह धारणा मज़बूत होती है कि यूरोप और अमेरिका के लिए यह समझौता सिर्फ अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों को सुरक्षित करने का साधन है, न कि दोनों पक्षों के लिए बराबरी पर आधारित कोई समाधान।

